*कामकाजी महिला और संयुक्त परिवार !* *मीना सिन्हा*, शिक्षक, नई दिल्ली
कामकाजी महिला और संयुक्त परिवार !* *मीना सिन्हा*, शिक्षक, नई दिल्ली | कामकाजी महिला और संयुक्त परिवार शीर्षक को यदि हम ध्यान से पढ़ें व देखें तो हम पायेंगे कि उपरोक्त शीर्षक अपने भीतर से दो उपशीर्षकों को समाहित किए हुए है पहला कामकाजी महिलाएं तथा दूसरा संयुक्त परिवार।इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि पहले इन्हीं दो शब्दों की व्याख्या की जाए। कामकाजी अर्थात् नौकरी करने वाली वह महिला, जो परिवार के आर्थिक मोर्चों पर कंधे से कंधा मिलाकर योगदान करती हुई परिवार को एकसूत्र में बांधने का प्रयास करती है। दूसरा है संयुक्त परिवार अर्थात वह परिवार जिसमें माता-पिता, भाई-बहन सभी साथ रहते हुए एक दूसरे के सुख-दुख के साथी होते हैं। यदि वर्तमान संदर्भों में हम वैवाहिक विज्ञापनों पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि ज्यादातर नौजवान अपने लिए कामकाजी अर्थात नौकरी पेशा कमाऊ पत्नी की अभिलाषा रखते हैं। ऐसे लोग प्रायः पत्नी पति की संयुक्त आय से शीघातिशीघ्र, साधन संपन्न होना चाहते हैं। ऐसे में यदि कामकाजी महिला को विवाह उपरांत अपने होने वाले पति के परिवार के सदस्यों के साथ रहना पड़े तो संयुक्त परिवार में सभी सदस्यों के विचार और धारणाएं अलग-अलग होने के कारण उसे नए वातावरण में स्वयं को ढालना पड़ता है। वह स्वावलंबी होने के साथ-साथ यदि स्वतंत्रता पसंद है तो उसे जीवन में संयुक्त परिवार में कई कठिनाईयों का सामना भी करना पड़ता है।
कामकाजी महिला जब विवाह के बाद ससुराल जाती है तो उसे प्रायः दो मोर्चों संभालने पड़ते हैं पहला वह कामकाजी है, नौकरीपेशा है उसे उस रूप में अपने आप को एडजस्ट करना, दूसरा नए संयुक्त परिवार में सबका ध्यान रखते हुए उत्तम बहू बनकर रहना। यह काफी कठिन कार्य है एक कामकाजी महिला के लिए कि वह संयुक्त परिवार तथा अपने कैरियर के बीच उचित संतुलन बनाकर चले। उसकी अपनी कुछ व्यक्तिगत, निजी प्राथमिकताएं होती है साथ ही कुछ प्रोफेशनल गोल्स भी होते हैं। वह दोनों ही मोर्चों पर सफलतना पाना चाहती है। इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी है पति का सहयोग। अतः विवाह से पहले इस पहलू पर अपने होने वाले पति से अच्छी तरह इस मुद्दे ;विषयद्ध पर चर्चा अवश्य कर लेनी चाहिए ताकि भविष्य में पैदा होने वाली कठिनाईयों, भ्रमों से मुक्ति पा सके।
जब आप विवाह संस्था के सामाजिक बंधन में बंधते हैं तो परिवार के कुछ नए नियम आपको परिभाषित करने का प्रयास करेंगे जिन्हें जानने व समझते हुए कामकाजी महिला को दोनों के बीच सामंजस्य बैठाने का प्रयास करना चाहिए। सुपर वुमेन के रूप में परिभाषित होने के लिए संभव है कामकाजी महिला को उसकी कीमत चुकानी पड़े।
21 वीं सदी की कामकाजी महिलाओं को संयुक्त परिवार की पुरातन संरचना में रखने पर क्या होता है? इस विषय पर हर किसी की व्यक्तिगत राय भिन्न हो सकती है। वास्तव में यह स्थिति एक सिक्के के दो पहलुओं के समान है। कुछ की राय इसके पक्ष में कुछ की राय विपक्ष में हो सकती है परंतु यदि गौर किया जाये तो मेरे विचार में आज की कामकाजी महिलाएं ‘संयुक्त परिवार’ की पक्षधर नजर आती है। उसके कुछ कारण है। संयुक्त परिवार में माता पिता अपने पुत्रों को यदि इस बात के लिए प्रेरित करें कि वह अपनी कामकाजी पत्नी का किचन में कामों में सहयोग करें हाथ बंटाए न कि उनका ‘जोरू का गुलाम’ कह कर मजाक बनाए। स्त्री यदि रसोई से निकल कर पुरूष समाज के कार्यों में कंधे से कंधा मिलाकर कार्यों को कर सकती है तो पुरुष क्यों नहीं। वह दैनिक कार्यों में कामकाजी महिला की सहायता कर सकते है जब महिला नौकरी के लिए घर से बाहर निकलती है तो वह अपने बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाती है। ऐसे में उसके बच्चों का पूरा ध्यान रखें वो भी बिना किसी तनाव के। इसके दो लाभ होंगे-एक तो कामकाजी महिला बिना किसी तनाव के अपने दफ्तर के कार्यों को सुचारू रूप से कर पाने में सक्षम होगी। दूसरा परिवार के बुर्जुगों को भी बच्चों के साथ समय बिताने का अवसर मिलेगा। उनका मन भी लगेगा साथ ही बच्चों को भी परिवार का प्यार, दुलार, संस्कार मिलेंगे।
सर्दी, गर्मी, बरसात के मौसम में दफ्तर के लिए भागते हुए ‘क्रेच’ में बच्चे को छोड़ते समय कामकाजी महिला के हृदय में उठने वाली टीस को शायद ही कभी कोई अन्य महसूस कर पाए किंतु यदि यही संयुक्त परिवार है तो वह कोमल हार्थों के सुपुर्द कर अपने कार्यालय जा सकती है। बच्चों में आपसी भाईचारे की भावना, प्यार की अभिव्यक्ति व भावना, आपसी संबंधों का आदर करना, बड़ों के पांव छूकर आशीर्वाद लेना आदि संस्कार केवल संयुक्त परिवारों में ही पनपते देखे गये है। जब कामकाजी महिला थकहार कर आफिस से काम कर वापिस घर लौटती है तो घर का दरवाजा खोलकर मुस्करा कर आपके स्नेह से हाथ फेरने दो कोमल व मुलायम हाथ उसका स्वागत एक गिलास पानी देकर कर दे तो मानो दिनभर की उसकी थकान क्षणभर में छूमंतर हो जाती है और उसमें नयी स्फूर्ति का संचार हो जाता है और वह पुनः घर के कार्यों में जुट जाती है।
उस महिला को यूं ही सुपरमैन नहीं कहते वह काम भी उसी श्रेणी के करती है। स्वस्थ पारिवारिक वातावरण का निर्माण वहीं संभव है जहां पारिवारिक मूल्यों को समझने व समझाने वाले बुजुर्ग हों। जो गलती करने पर टीचर की तरफ समझाने की भूमिका निभाए न कि पुत्र के पक्ष में एक पक्षीय फैसला सुनाने वाले जज की भूमिका निभाएं। संयुक्त परिवार में सभी लोग मिल जुलकर घर का खर्च चलाने में सहायता करते है जिससे जिम्मेदारी का बोझ किसी एक के कंधों पर नहीं पड़ता है, मुश्किलों का सामना सभी मिल जुलकर, एकजुट हो करते हैं, सभी एक दूसरे की मुश्किलों का हल निकालते हैं। त्यौहार पर्व आदि इकट्ठे मनाने में त्यौहारों का आनंद दुगना हो जाता है।
आजकल की भागदौड़ वाली जिंदगी में कुंठा तथा अकेलापन एक बड़ी बीमारी के रूप में उभर रहा है किंतु यदि हम संयुक्त परिवार में हंसी खुशी का सभी सदस्यों के साथ समय बिताते हैं तो इन बीमारियों से स्वतः ही मुक्ति पा जाते हैं।कुछ लोग सिक्के के दूसरे पहलू को देखते हुए एकल परिवार की वकालत कर सकते हैं तथा उसकी उपलब्धियों का गुणगान करके उसे सर्वश्रेष्ठ कवि की यह पंक्तियां अवश्य पढ़नी चाहिएः-
मैं आज युवा पीढ़ी को एक बात बताना चाहूंगा,
उनके अंतः मन में एक दीप जलाना चाहूंगा,
ईश्वर ने जिसे जोड़ा है,
उसे तोड़ना ठीक नहीं,
ये रिश्ते हमारी जागीर है ये कोई भीख नहीं,
संस्कार और संस्कृति रग-रग में बसते थे,
उस दौर में हम मुस्कुराते नहीं खुलकर हंसते थे,
इंसान खुद से अब दूर होता जा रहा है
वो संयुक्त परिवार का दौर अब खोता जा रहा है,
हमें यदि अपनी पुरातन संस्कृति को जीवित रखना है
तो पारिवारिक सहयोग जो कि संयुक्त परिवार प्रथा का अभिन्न अंग है उसे अपनाना होगा।
बेशक कामकाजी महिलाओं को संयुक्त परिवार में रहते हुए कई बार अपनी इच्छाओं का दमन करना पड़ता है। ज्यादा कार्य करने पड़ते हैं, बड़े बूढ़ों की इज्जत करनी पड़ती हे, उनका ख्याल रखना होता है परंतु हमें साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना प्रकृति का नियम है।
लेखक भी स्वयं एक कामकाजी महिला शिक्षक है और संयुक्त परिवार में रहते हुए मुझसे ज्यादा भला उसकी अहमियत कौन जान सकता है? कौन समझ सकता है? निसंदेह यह एक विवाद का विषय हो सकता है परंतु यदि हम पारिवारिक मूल्यों की तराजू में इसके लाभों को तौलेंगे तो निसंदेह हम संयुक्त परिवार का पलड़ा भारी ही पायेंगे।
अंत में मैं केवल यह कहना चाहूंगी कि इस विषय पर हर किसी का व्यक्तिगत मत भिन्न हो सकता है। अपनी राय आप किसी पर थोप नहीं सकते। विभिन्न विचारधाराओं वाली महिलाएं भिन्न भिन्न मत रख सकती हैं। संयुक्त परिवार में कामकाजी महिला भलीभांति जानती है कि परिवार में कायदा नहीं परंतु अनुशासन होता है, परिवार में भय नहीं परंतु भरोसा होता है। कामकाजी महिला के अन्र्तमन में झांक कर देखिए आप उसमें केवल संयुक्त परिवार की छवि पायेंगे। संयुक्त परिवार में एक दूजे का साथ है होता कोई सदस्य कभी भी हिम्मत नहीं खोता, खुशकिस्मत होते हैं वो जिन्हें परिवार मिला, वरना यह हर किसी के नसीब में नहीं होता |
मीना सिन्हा,
शिक्षक राजकीय विद्यालय,
उत्तम नगर,
नई दिल्ली
निर्भय सक्सेना