30 जून जयन्ती पर विशेष-घुमक्कड़ साहित्यकार वैद्यनाथ मिश्र उर्फ ‘नागार्जुन’
वैद्यनाथ मिश्र उर्फ नागार्जुन की गणना देश के अग्रणी साहित्यकारों में होती है। उन्होंने साहित्य की हर विधा में अपनी लेखनी चलाई। वह एक ख्यातिलब्ध कवि, सिद्धहस्त कथाशिल्पी और प्रसिद्ध उपन्यासकार थे। उनका मूल नाम तो वैद्यनाथ मिश्र था, परन्तु उन्होंने हिन्दी में ‘नागार्जुन’ और मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से रचनाएं लिखीं। उन्होंने संस्कृत एवं बांग्ला भाषा की रचनाओं का अनुवाद भी किया। उनकी रचनाओं में प्रगतिशील विचारधारा की झलक देखने को मिलती है। वे एक फक्कड़ साहित्यकार थे और पूरी जिन्दगी आर्थिक अभावों से जूझते रहे।
नागार्जुन का जन्म 30 जून सन् 1911 को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा गाँव में हुआ था। यह उनका ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरोनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम ‘ठक्कन मिसर’ था। नामकरण के समय इनका नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया। गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। वे काम-धाम कुछ करते नहीं थे। सारी जमीन बटाई पर दे रखी थी और जब उपज कम हो जाने से कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं तो उन्हें जमीन बेचने का चस्का लग गया। इस प्रकार इनके पिता ने अपने जीवन के अन्तिम दिन बड़ी मुफलिसी में बिताए।
इन्हीं विषम पारिवारिक परिस्थितियों में बालक वैद्यनाथ मिश्र पलने-बढ़ने लगे। छह वर्ष की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता गोकुल मिश्र अपने एकमात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, इस गाँव से उस गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गई और बड़े होकर घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया। ‘घुमक्कड़ी का अणु जो बाल्यकाल में ही उनके शरीर के अंदर प्रवेश पा गया, वह रचना-धर्म की तरह ही विकसित और पुष्ट होता गया।
वैद्यनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा उक्त पारिवारिक स्थिति में ‘लघु सिद्धांत कौमुदी’ और ‘अमरकोश’ के सहारे आरंभ हुई। उस जमाने में मिथिलांचल के धनी अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को प्रश्रय दिया करते थे। इस उम्र में बालक वैद्यनाथ ने मिथिलांचल के कई गाँवों को देख लिया। बाद में विधिवत् संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की। वहीं उन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चन्द्र बोस उनके प्रिय थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अपना अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात ‘विद्यालंकार परिवेण’ मे जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। राहुल सांकृत्यायन और नागार्जुन ‘गुरु भाई’ रहे। लंका की उस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्था में रहते हुए उन्होंने केवल बौद्ध दर्शन का अध्ययन ही नहीं किया बल्कि उनकी रुचि तत्कालीन विश्व राजनीति में भी जागी और भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की उनकी सजग नजर भारत में चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन पर भी लगी रही।
सन् 1938 ई. के मध्य में वे लंका से वापस लौट आये। फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ जीवन। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलन में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती।
सन् 1974 के अप्रैल में जेपी आन्दोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था ‘सत्ता प्रतिष्ठान की दुनीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।
25 जून सन् 1975 में प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल से पूर्व ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था, और उन्हें कई महीने जेल में बिताने पड़े। जेल में रहते हुए उन्होंने कई कालजयी रचनाएं लिखीं जिनमें उनके विद्रोह के स्वर झलकते हैं।
नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो 1929 ई. में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित ‘मिथिला’ नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना ‘राम के प्रति’ नामक कविता थी जो 1934 ई. में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक ‘विश्वबन्धु’ में छपी थी।
नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, निबंध, बाल साहित्य-भी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बांग्ला से भी जुड़े रहे। बांग्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बांग्ला साहित्य को मूल बांग्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रूप से बांग्ला लिखना फरवरी 1978 ई. में शुरू किया और सितंबर 1979 ई. तक लगभग 50 कविताएँ लिखी जा चुकी थीं। कुछ रचनाएं बंगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं।
नागार्जुन ने अपनी अड़सठ वर्ष की साहित्य यात्रा के दौरान विपुल साहित्य की रचना की। ‘युगधारा’, ‘सतरंगे पंखों वाली’, ‘प्यासी पथराई आंखें’, ‘खिचड़ी’, ‘विप्लव देखा हमने’, ‘भूल जाओ पुराने सपने’, ‘रत्न गर्भ’, ‘पुरानी जूतियों का कोरस’, ‘तुमने कहा था’, ‘अपने खेत में’ आदि उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं।
नागार्जुन ने कई कालजयी उपन्यास लिखे जो पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुए। ‘रतिनाथ की चाची’, ‘बलचनमा’, ‘बाबा बटेसर नाथ’, ‘दुख मोचन’, ‘कुंभी पाप’, ‘उग्र तारा’, ‘जमनिया का बाबा’ तथा ‘गरीबदास’ आदि उपन्यास बहुत चर्चित हुए।
‘आसमान में चन्दा तेरे’, उनका बहुत चर्चित कथा संग्रह है। जिसे पाठकों ने बहुत सराहा। ‘एक व्यक्ति एक युग’ उनका संस्मरण संग्रह है। इसमें हमें उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं की झलक मिलती है। ‘अन्नहीनम् क्रिया हीनम् उनका एकमात्र आलेख संग्रह है। इसमें उन्होंने समाज के विविध पहलुओं पर अपनी लेखनी चलाई है।
नागार्जुन एक घुमक्कड़ साहित्यकार थे। वे स्वभाव के बड़े फक्कड़ थे और दिखावे तथा आत्म प्रदर्शन से कोसों दूर रहते थे। उनकी रचनाओं में आम आदमी की पीड़ा और उनके प्रगतिशील विचारों की झलक स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। वे जन कवि थे और हमेशा लोगों के दिलों में जीवित रहेंगे।
सुरेश बाबू मिश्रा
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, बरेली
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !