स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार के दायरे में कब लाया जाएगा?
गोरखपुर के बीआरडी हॉस्पिटल में सात से ग्यारह अगस्त के बीच साठ बच्चे मर गए। इस झकझोर देने वाली घटना के लिए कई बातों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। खबरों में बताया गया है कि इस अस्पताल में रोजाना इंसेफेलाइटिस के 200-250 मरीज आ रहे हैं, जिनमें मृत्य दर सात से आठ फीसदी है। अस्पताल और ऑक्सीजन सप्लायर के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। विडंबना है कि गोरखपुर जिले के स्वास्थ्य और विकास के आंकड़े उत्तर प्रदेश के औसत से ऊपर हैं। यहां 12-23 माह तक के 65.4 फीसद बच्चों का पूरी तरह टीकाकरण किया गया है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 51.1 फीसद है। देश के अन्य राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य सेवा पर सबसे कम खर्च करने वाला राज्य है। यहां दवाओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर प्रदेश की जीडीपी का मात्र 0.8 फीसद यानी 452 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च किया जाता है। इसकी तुलना में वर्ष 2014 में उत्तराखंड में 1042 रुपये में और देश में औसतन 647 रुपये खर्च किए गए। गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टरों के आधे पद खाली हैं। पूरे देश में डॉक्टरों की कमी है। भारत में 6.5 लाख डॉक्टर हैं,जबकि 2020 तक चार लाख और डॉक्टरों की जरूरत होगी।
दशकों तक स्वास्थ्य सेवा पर सालाना छह खरब रुपये तक खर्च करने के बावजूद देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली न्यूनतम स्वास्थ्य सेवाएं दे पाने में नाकाम है। ऑक्सीजन सिलेंडरों की बात छोड़ भी दें,तो भी अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता (प्रति हजार आबादी पर 0.9 बिस्तर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश के अनुसार कम से कम 3.5 बिस्तर होने चाहिए) बहुत कम है। 12वीं पंचवर्षीय योजना में स्वास्थ्य सेवा के लिए 10.7 लाख करोड़ रुपये खर्च का आकलन किया गया था,लेकिन सिर्फ 3.8 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए गए और इसमें से भी चौथे साल तक सिर्फ 30,000करोड़ रुपये खर्च किए जा सके।
हमारी आबादी के आकार को देखते हुए भले ही सबको प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के दायरे में लाना आसान नहीं है, लेकिन यह असंभव भी नहीं है। इसे चीन के उदाहरण से समझा जा सकता है। वर्ष2008 तक चीन की ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था बुरे हाल में थी। सबसे गरीब 20 फीसदी गांवों और कस्बों में प्रसव के दौरान प्रति एक लाख में से 73 महिलाओं की मौत हो जाती थी, जबकि सबसे अमीर 20 फीसदी इलाकों में यह आंकड़ा 17 का था। स्वास्थ्य सेवा लगातार महंगी होती जा रही थी। लेकिन वर्ष 2009 में चीन की सरकार ने स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए नए उपायों की शुरुआत की, जिसके तहत मौजूदा त्रि-स्तरीय ग्रामीण स्वास्थ्य प्रणाली (काउंटी स्तर के अस्पताल, नगरीय स्वास्थ्य केंद्र और ग्रामीण क्लीनिक) में सुधार और विस्तार पर जोर दिया गया। केंद्रीय सरकार द्वारा काउंटी अस्पतालों और ग्रामीण क्लीनिकों की दशा सुधारने के लिए वर्ष 2009 से 2012 के दौरान 52 अरब युआन का बजट आवंटित किया गया। इससे दो साल के अंदर हर कस्बे में कम से कम एक अस्पताल तैयार किया गया और 92 फीसदी से अधिक गांवों को स्वास्थ्य सेवा की सुविधा मिल गई। यही नहीं, ग्रामीण स्वास्थ्यकर्मियों के प्रशिक्षण पर भी वर्ष 2004 से 2011 के दौरान 2.26 अरब युआन आवंटित किए गए। नतीजतन कस्बों में प्रति हजार की आबादी पर स्वास्थ्यकर्मियों का आंकड़ा 1.3 तक पहुंच गया। ग्रामीण स्वास्थ्य बीमा योजना का दायरा बढ़ाकर वर्ष 2011 तक इसके तहत ग्रामीण आबादी के 97.5फीसदी लोगों को लाया गया। इसका असर यह हुआ कि ग्रामीणों द्वारा स्वास्थ्य पर अपनी जेब से किया जाने वाला खर्च तीन साल के भीतर 73.4 फीसदी से घटकर 49.5 फीसदी पर आ गया।
हेल्थकेयर फाइनेंस को लेकर हमारा नजरिया बदलने की जरूरत है। वर्ष 2020 तक भारत में स्वास्थ्य सेवा पर होने वाला खर्च 280 अरब डॉलर पर पहुंच जाने का अनुमान है। हमारा मौजूदा सिस्टम कर-आधारित फंडिंग की सोच पर खड़ा है, जबकि कुल स्वास्थ्य खर्च का बमुश्किल पांच फीसदी स्वास्थ्य बीमा के दायरे में आता है। वर्ष 2015 में देश में सिर्फ पांच स्वास्थ्य बीमा कंपनियां और 17 जनरल बीमा बीमा कंपनियां स्वास्थ्य बीमा बेच रही थीं, जबकि यूनाइटेड किंगडम में 911 कंपनियां हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार के लिए अक्सर मुक्त बाजार की हिमायत की जाती है, लेकिन बात जब स्वास्थ्य सेवाओं की हो, तो ऐसा नहीं होता। ज्यादातार विकसित और विकासशील देशों में उच्च क्षमता वाली स्वास्थ्य प्रणाली बनाने की पहल की गई है, जिसमें पूरी प्रणाली को बनाने और चलाने में सरकार की भागीदारी होती है। इसके लिए धन जुटाना सबसे महत्वपूर्ण है। टैक्स बढ़ाकर (जैसा कि ब्रिटेन में होता है) या फिर अनिवार्य स्वास्थ्य बीमा (जैसा अमेरिका, जापान, जर्मनी में है) के जरिये इलाज के लिए पैसा जुटाया जाता है। इस पैसे का प्रबंधन आमतौर पर विशाल सरकारी ट्रस्ट, बीमा संस्थान (जैसे ओबामा केयर) या कोई एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा संस्था करती है। ऐसी व्यवस्थाएं स्वास्थ्य सेवा की स्थिति में सुधार ला सकती हैं।
सात दशक बाद भी भारत के सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रम का दायरा सीमित और बिखरा हुआ है। प्राथमिक और द्वितीयक स्वास्थ्य सेवा निम्न स्तर की है और इसका खर्च बढ़ता जा रहा है। भारत को अन्य देशों के कामयाब तरीकों से सीखने की जरूरत है। स्वास्थ्य सेवा के लिए सेस लगाकर अतिरिक्त धन जुटाया जा सकता है और तंबाकू, अल्कोहल और खनन कंपनियों पर ज्यादा टैक्स लगाकर निशुल्क दवाओं, जांच और आपातकालीन स्वास्थ्य सेवा के लिए धन का इंतजाम किया जा सकता है। इस अनिश्चित समय में, सस्ती और समय पर मिलने वाली स्वास्थ्य सेवा हर नागरिक का मूल अधिकार होना चाहिए।
अब स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने की तैयारी, 47 सांसदों ने पीएम को भेजी याचिका
गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में पिछले दिनों आक्सीजन की कमी के चलते दर्जनों बच्चों की मौत समेत आए दिन सही समय पर इलाज न मिल पाने के कारण बीमारियों से बेबस लील होती जिंदगी के चलते अब स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार के दायरे में लाने की मांग जोर पकड़ रही है। क्योंकि देशभर के 47 सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखित याचिका में इसे लागू करने की मांग रखी है। खास बात यह है कि इन सांसदों में अधिकतर सांसद ऐसे हैं, जोकि स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की समिति समेत कई अन्य संसदीय समिति के सदस्य भी हैं। केंद्रीय सरकार कर्मचारी कल्याण परिषद के संयुक्त सचिव अजय कुमार ने एक साल पहले स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार के दायरे में लाने की मुहिम शुरू की थी, जिन्हें अब 47 सांसदों का साथ मिल गया है।
अमर उजाला के पास इन सभी सांसदों की लिखित याचिका के दस्तावेज उपलब्ध हैं। अजय समेत विभिन्न राजनैतिक दलों के सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी अपनी लिखित याचिका में लिखा है कि शिक्षा की तरह स्वास्थ्य भी देश के लिए एक संवेदनशील विषय है। सरकार की भी सबसे बड़ी चुनौती व उदेश्य है कि सभी को चिकित्सा सुविधा मुहैया करवायी जाए। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में ये संभव नहीं दिख रहा है। स्वास्थ्य सेवा लेने के लिए कोई ठोस कानून न होने के चलते निजी अस्पताल के साथ-साथ सरकारी अस्पतालों में भी लोग इलाज नहीं करवा पाते हैं।
अत्यधिक भीड़ होने के चलते समय पर मरीज को इलाज की सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती है। इसी के चलते कई बार मरीज की जान तक चली जाती है। यहां तक की चिकित्सक व अस्पताल प्रशासन इलाज करने से मना भी कर देते हैं। इन सबका खामियाजा गरीब मरीज को भुगतना पड़ता है। अस्पतालों के इस गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को देखते हुए एक मजबूत कानून बनाकर स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार में शामिल किया जाना चाहिए।
याचिका भेजने वालों में यूपी सलेमपुर के लोकसभा सांसद रविन्दर कुशवाहा, मोतीलाल वोहरा, राज्यसभा सांसद जुगुल किशोर, अश्विनी कुमार चौबे (स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य ),डॉ. प्रसन्न कुमार पाटसाणी (स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की सलाहकार समिति के सदस्य और एम्स भुवनेश्वर की गवर्नमेंट बॉडी के सदस्य),राम चरित्र निषाद (मछलीशहर विधानसभा क्षेत्र -जौनपुर, यूपी ),रामविचार नेताम सांसद राज्यसभा(राष्ट्रीय सचिव भाजपा),हरिनरायन राजभर (सांसद लोकसभा घोसी-यूपी),शिव प्रताप शुक्ल (राज्यसभा सांसद,यूपी) व चिराग पासवान (स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के समिति) के नाम मुख्य हैं।
अजय कुमार, सचिव, केंद्रीय सरकार कर्मचारी कल्याण परिषद के मुताबिक सरकार यदि इस अधिकार को लागू करती है तो फिर कोई भी अस्पताल मरीज को इलाज देने में आनाकानी के साथ देरी नहीं करेगा। क्योंकि मरीज के पास अधिकार होगा कि वह मना करने वालों पर कानूनी कार्रवाई करवा सके। जिस प्रकार शिक्षा का अधिकार कानून के चलते 14 साल तक शिक्षा देना बच्चों को अनिवार्य है, उसी प्रकार स्वास्थ्य सुविधा देना इसके तहत जरूरी हो जाएगा। सरकारी के साथ निजी अस्पताल भी इलाज में कोताही नहीं कर पाएंगे।