4 जुलाई पुण्यतिथि पर विशेष-भारतीय संस्कृति के संवाहक स्वामी विवेकानन्द

विश्व में ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से काल के कपाट पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। स्वामी विवेकानन्द इन्हीं महापुरुषों में से एक थे उन्होंने भारतीय संस्कृति की कीर्तिपताका को पूरे विश्व में फहराया। वे सच्चे संन्यासी प्रखर विद्वान उत्कट देशभक्त और महान समाजसेवी थे। शिकागो के धर्म सम्मेलन में लिया गया उनका सारगर्भित भाषण लोगों को सदैव प्रेरित करता रहेगा।
स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं को निरन्तर कार्य करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि कर्मयोग सबसे श्रेष्ठ है इसलिए देश के नौजवान भाग्य की बजाय अपने कर्म में विश्वास रखते हैं। विवेकानन्द युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं इसलिए हमारे देश में उनका जन्मदिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
विवेकानन्द सन् 1863 में एक बंगाली परिवार में हुआ था। बचपन में इनका नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में अटारनी जनरल थे। इनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था और वह एक धर्मपरायण महिला थीं। कलकत्ता के स्काॅटिस चर्च कालेज और विद्या सागर कालेज से इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इन्होंने रेसीडेन्सी विश्वविद्यालय कलकत्ता में प्रवेश लेने के लिए प्रवेश परीक्षा दी। वे पढ़ाई में काफी तेज थे और उन्होंने रेसीडेन्सी कालेज की प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान हासिल किया। नरेन्द्रनाथ को संस्कृत, साहित्य, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला, धर्म और बंगाली साहित्य में गहरी रुचि थी।
उनका मन सदैव शान्त रहता, उनके मन में परमात्मा के दर्शन करने की धुन सदैव सवार रहती। उस समय कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना हो चुकी थी। इसलिए नरेन्द्रनाथ ब्रह्म समाज में जाने लगे काफी समय तक वे निरन्तर ब्रह्म समाज की सभाओं में जाते रहे। परन्तु उनके मन को शान्ति नहीं मिली। एक दिन अचानक वे ब्रह्म समाज के अध्यक्ष महर्षि देवेन्द्रनाथ के पास पहुँचे और उनसे प्रश्न किया-“महाशय आपने ब्रह्म को देखा है?“ एक छोटे लड़के के मुँह से ऐसा प्रश्न सुनकर महर्षि चैंक पड़े और बोले-“लड़के तेरी आँखें तो योगी की तरह हैं।“ पर नरेन्द्रनाथ को इस उत्तर से सन्तोष नहीं हुआ और वे अपने प्रश्न का उत्तर जानने के लिए अन्य धार्मिक लोगों से चर्चा करने लगे।
नरेन्द्रनाथ को इस प्रकार ईश्वर की खोज में चारों ओर भटकते देखकर एक दिन उनके काका ने कहा-“तुझे यदि वास्तव में ईश्वर को प्राप्त करना है तो दक्षणेश्वर में रामकृष्ण परमहंस के पास जा।“
दक्षणेश्वर पहुँचकर नरेन्द्र नाथ ने श्रीराम कृष्ण परमहंस से भी वही प्रश्न किया-“क्या आपने ईश्वर को देखा है?“ उन्होंने कहा -‘हाँ देखा है’ जिस प्रकार मैं तुम सबको देखता हूँ और तुम्हारे साथ बात करता हूँ उसी प्रकार ईश्वर को भी देखा जा सकता है, और उसके साथ बातें की जा सकती हैं। पर इसके लिए प्रयत्न कौन करता है? लोग स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति के लिए हाय-हाय करते फिरते हैं उनके वियोग में रोते हैं पर ईश्वर नहीं मिल पाया। इसके लिए कौन रोता है? ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई इसके लिए यदि मनुष्य उसी प्रकार व्याकुल हो जाय जैस स्त्री-पुरुष आदि के लिए हो जाता है तो वह अवश्य ईश्वर के दर्शन कर सकेगा।“
परमहंस जी का उत्तर सुनकर नरेन्द्रनाथ के मन में उनके प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न हो गई और वे उनके शिष्य बन गये। लम्बे समय तक उन्होंने परमहंस जी की सेवा की और उनसे ज्ञान प्राप्त किया। जब परमहंस बीमार हुये तो नरेन्द्र नाथ ने दिन-रात उनकी सेवा की। गुरु की अनन्य सेवा से उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ।


25 वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रनाथ ने गेरुआ वस्त्र पहन लिये और सन्यासी बन गये। अब उनका नाम स्वामी विवेकानन्द हो गया। उन्होंने पैदल ही पूरे भारत वर्ष की यात्रा की। भारत माता की परतन्त्रता और देशवासियों की विपन्नता को देखकर उनका मन उद्वेलित हो जाता। वे भारतीय संस्कृति तथा अपने देशवासियों के लिए कुछ करना चाहते थे। उस समय पूरे देश में क्रिश्चियन धर्म का प्रभुत्व था, ईसाई पादरी देश की जनता ने ईसाई धर्म को हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ बताने के प्रचार में लगे हुये थे। स्वामी विवेकानन्द कभी-कभी इससे बहुत व्यथित हो जाते। उन्होंने अपनी देश की संस्कृति को पूरे देश में फैलाने का प्रयास किया।
सन् 1893 को 11 सितम्बर से अमेरिका के शिकागो नगर में विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। पूरे विश्व के विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधि इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए पहुँचे थे। विभिन्न कठिनाइयों का सामना करते हुए स्वामी विवेकानन्द भी इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए पहुँचे। अमेरिका के एक प्रोफेसर के सहयोग से उन्हें इस विश्व धर्म सम्मेलन में अपनी बात रखने के लिए दो मिनट का समय मिला।
जब स्वामी विवेकानन्द को इस धर्म सम्मेलन में वक्तव्य देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्हें ऐसा लगा कि मानो रामकृष्ण परमहंस उनके पीछे खड़े हुए उन्हें अपना आशीर्वाद दे रहे हैं। इससे विवेकानन्द के अन्दर अद्भुत शक्ति जागृत हो गई उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया। ‘लेडीज और जेन्टल मैन’ के परम्परागत सम्बोधन से हटकर जब उन्होंने सम्मेलन के लोगों को ‘भाईयो और बहनों’ कहकर सम्बोधित किया तो पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। स्वामी विवेकानन्द ने कई घंटे तक लगातार भाषण दिया, और लोग मन्त्रमुग्ध से बैठे उनके भाषण को सुनते रहे। इस भाषण के बाद पूरे अमेरिका में स्वामी विवेकानन्द के नाम की धूम मच गई और लोगों को भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म की वास्तविकता का ज्ञान हुआ।
कुछ महीने विदेश में रहकर स्वामी विवेकानन्द वापस भारत लौट आये। यहां आकर उन्होंने पूरे देश में रामकृष्ण आश्रमों की स्थापना की। इन आश्रमों का मुख्य कार्य देशवासियों को शिक्षित करना और गरीब तथा बीमार लोगों की सेवा करना था। इन आश्रमों की लोकप्रियता बढ़ती गई और लोग इन आश्रमों से जुड़ गये।
4 जुलाई 1902 को यह सन्यासी इस नश्वर संसार से महाप्रस्थान कर गया। देह त्याग करने से पहले वे अन्य दिनों की तरह ही अपने दैनिक कार्य सम्पादित करते रहे। प्रातःकाल शीघ्र उठकर नित्य कर्म से निवृत होने के बाद उन्होंने मन्दिर में पूजा की और तीन घन्टे तक काली माता का ध्यान करते रहे। आज वे हमारे मध्य नहीं हैं मगर उनके विचार और शिक्षाएं सदैव अमर रहेंगी।

सुरेश बाबू मिश्रा
सेवा निवृत्त प्रधानाचार्य
ए-979, राजेन्द्र नगर, बरेली-243122 (उ॰प्र॰)                                                                                                                                                                                                                                                    मोबाइल नं. 9411422735,
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !

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