27 सितम्बर जयन्ती पर विशेष-“अमर क्रांतिकारी एवं प्रखर विचारक शहीदे आजम भगत सिंह
भारत माँ को परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने में पंजाब के क्रान्तिकारियों ने अग्रिणी भूमिका निभाई। अमेरिका में रहकर भारत की आजादी की अलख जगाने वाले लाला हरदयाल एवं पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के मार्गदर्शन एवं प्रेरणा से पंजाब में क्रान्तिकारियों की एक लम्बी शृंखला तैयार हुई। जिनमें सरदार करतार सिंह सराभा, सरदार ऊधम सिंह, मदन लाल धींगरा, सरदार भगत सिंह, यशपाल, सुखदेव, राजगुरु आदि प्रमुख क्रान्तिकारियों के नाम शामिल हैं।
भगत सिंह ने आजादी की जंग में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उत्कट देशभक्ति, अदम्य साहस, शौर्य, वीरता एवं निर्भीकता के गुण उनमें कूट-कूट कर भरे हुए थे। इसके साथ ही वे वैचारिक दृष्टि से भी बहुत परिपक्व थे। वे क्रान्ति की हर योजना को उसके प्रत्येक पहलू पर पूरी तरह से विचार करने के बाद बनाते थे। इसलिए उन्हें क्रांति दल का थिंक टैंक कहा जाता था।
भगत सिंह का जन्म पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गाँव में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था। उस समय पूरे देश में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी। भगत सिंह को देशभक्ति का गुण विरासत में मिला। उनके पिता किशन सिंह अपने चारों भाइयों के साथ लाहौर की सेन्ट्रल जेल में बन्द थे। भगत सिंह का पालन-पोषण उनकी माँ विद्यावती ने बड़े लाड़-प्यार के साथ किया। उनकी बड़ी बहन अमरो अपने वीरा भगत सिंह को बहुत प्यार करती थीं।
उसी समय अंग्रेजी सरकार द्वारा एक कानून लाया गया। इस कानून का नाम था “रौलट एक्ट“। देश की जनता इस कानून के खिलाफ थी और पूरे देश में इसका पुरजोर विरोध किया जा रहा था। इसी कानून के विरोध में 13 अप्रैल सन्् 1919 को अमृतसर के जलियां वाला बाग में एक सभा हो रही थी। उसी समय अचानक वहां अंग्रेज पुलिस आई और प्रदर्शनकारियों को चारों ओर से घेर लिया।
सभा पूरी तरह से शान्तिपूर्वक चल रही थी। सभा में हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारी मौजूद थे। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल थीं। तभी अंग्रेज पुलिस अधिकारी जनरल डायर ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। इसमें सैंकड़ों निर्दोष लोग मारे गए और हजारों की संख्या में लोग घायल हो गए। यह अंग्रेज शासकों के दमन और क्रूरता की पराकाष्ठा थी।
उस समय भगत सिंह लगभग बारह वर्ष के थे। उनके बालमन पर इस घटना का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। अपने देशवासियों की विवशता एवं दुर्दशा देखकर उनका मन उद्धेलित हो उठा। बाग की मिट्टी को मुट्ठी में लेकर उन्होंने भारत माँ की आजादी के लिए बलिदान होने की सौगन्ध ली। कहते हैं कि भगत सिंह निर्दोष लोगों के लहू से गीली इस मिट्टी को एक शीशी में भरकर घर ले गए। वे प्रतिदिन इस मिट्टी से तिलक लगाकर स्कूल जाया करते थे।
प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद भगत सिंह आगे की पढ़ाई के लिए लाहौर चले गए। वहां उन्होंने नेशनल कालेज, लाहौर में प्रवेश लिया। भगत सिंह पढ़ने में बहुत मेधावी थे और परीक्षा में बहुत अच्छे अंकों से पास होते थे, मगर उनका मन हर समय बेचैन रहता। देश को आजाद कराने की भावना उनके मन में हर समय हिलोरे लेती रहती। लाहौर उस समय क्रान्तिकारी गतिविधियों का एक मुख्य केन्द्र था। यहां भगत सिंह की मुलाकात यशपाल और सुखदेव से हुई। इन दोनों के मन में भी आजादी की ज्वाला धधक रही थी। इसलिए कुछ ही समय में तीनों गहरे मित्र बन गए और आजादी की पथरीली राहों पर चल पड़े। अपनी पढ़ाई के दौरान ही भगत सिंह ने यूरोप में हुई कई क्रान्तियों का गहन अध्ययन किया।
जब वे लाहौर में बी.ए. में पढ़ रहे थे तभी उनके पिता ने उनकी शादी तय कर दी। उन्होंने भगत सिंह को इस सम्बन्ध में एक पत्र लिखा और उन्हें उनकी शादी के बारे में जानकारी दी। पिता जी का पत्र पढ़कर भगत सिंह चिन्ता में पड़ गए। वे भली-भाँति जानते थे कि उनकी माँ और बड़ी बहिन अमरो भगत सिंह की शादी के लिए कितनी आतुर थीं। मगर भगत सिंह तो मन ही मन अपना जीवन भारत माँ की आजादी के लिए समर्पित करने का संकल्प ले चुके थे।
बहुत सोच-विचार करने के उपरान्त भगत सिंह ने अपने पिता जी को एक बड़ा ही भावुक पत्र लिखा। उस समय भगत सिंह 19 वर्ष के अल्हड़ नौजवान थे, मगर अपने पिता जी को लिखा उनका यह पत्र उनकी वैचारिक परिपक्वता को व्यक्त करता है। उन्होंने लिखा-“यह वक्त शादी का नहीं है। देश हमें पुकार रहा है। मैंने तन, मन और धन से राष्ट्र की सेवा करने की सौगन्ध खाई है। मुझे विवाह के बन्धन में न बांधें बल्कि आशीर्वाद दें कि मैं अपने आदर्श पर टिका रहूँ।“
इसी मध्य कानपुर में उनकी मुलाकात प्रखर पत्रकार एवं महान देशभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी से हुई। गणेश शंकर विद्यार्थी उन दिनों कानपुर से “प्रताप“ समाचार पत्र निकाला करते थे। प्रताप में छपे उनके लेख नौजवानों में क्रान्ति की ज्वाला भरने का काम करते थे। भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी को अपना राजनीतिक गुरु बना लिया। गणेश शंकर विद्यार्थी के माध्यम से ही भगत सिंह का सम्पर्क चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद विस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी, मन्मन्थ नाथ गुप्त आदि क्रान्तिकारियों से हुआ। इन सभी का लक्ष्य भी भारत माता की परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त कराना था।
चन्द्रशेखर आजाद के सम्पर्क में आने के बाद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद के संगठन हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपबल्किन ऐसोसियेशन से जुड़ गये। इस एसोसियेशन के तार पूरे देश की क्रान्तिकारियों से जुड़े हुए थे। चन्द्रशेखर आजाद एसोसियेशन के सेनापति थे। उन्होंने इसका महामन्त्री भगत सिंह को बनाया।
30 अक्टूबर सन् 1928 को साइमन कमीशन लाहौर आने वाला था। लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में साइमन कमीशन का डटकर विरोध किया गया। भगत सिंह इस विरोध प्रदर्शन में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। “साइमन वापस जाओ“ इन्क्लाब जिन्दाबाद“ के गगनभेदी नारे गूंज रहे थे। निरीह प्रदर्शनकारियों पर अंग्रेज पुलिस अधिकारी जाॅन साण्डर्स ने लाठी चार्ज करने का आदेश दिया। इस लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय के सिर में गम्भीर चोटें आईं। मगर वे विचलित हुए बिना जुलूस का नेतृत्व करते रहे। उन्होंने दहाड़ते हुए कहा-“प्रत्येक प्रहार जो उन्होंने हम पर किये हैं वह ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के ताबूत में अन्तिम कील साबित होंगे। इस लाठी चार्ज में गम्भीर रूप से घायल होने के कुछ दिन बाद लाला लाजपत राय का दुखद निधन हो गया।
भगत सिंह, लाला लाजपत राय का बहुत सम्मान करते थे। उनके निधन से भगत सिंह बहुत व्यथित हुए। उनकी चिता की राख को मुट्ठी में भरकर उन्होंने साण्डर्स को मारने की कसम खाई।
भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में साण्डर्स को मारने की योजना बनाई गयी। साण्डर्स को मारने की जिम्मेदारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सौंपी गई। योजना के अनुसार निर्धारित समय पर चन्द्रशेखर आजाद एक ग्रामीण की वेशभूषा में साइकिल पर उस रास्ते पर सुनसान जगह पर एक किनारे खड़े हो गए जिधर से साण्डर्स की फिटिन गुजरती थी। जैसे ही फिटिन आती दिखाई दी चन्द्रशेखर रास्ते के बीच में आकर अपनी साइकिल की चैन चढ़ाने का उपक्रम करने लगे। आगे साइकिल देखकर फिटिन रुक गई तभी मौका पाकर वहीं आस-पास छिपे भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने साण्डर्स पर ताबड़तोड़ फायर कर उसे मौत के घाट उतार दिया।
लाहौर में दिन-दहाड़े हुई इस अंग्रेज पुलिस अधिकारी की निर्मम हत्या से अंग्रेज शासकों में हड़कम्प मच गया। उनका दमन चक्र क्रूर हो गया। ताबड़तोड़ दविशें देकर अंग्रेज पुलिस ने सुखदेव, राजगुरु सहित कई क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। भगत सिंह, चन्द्रशेखर और अन्य कई क्रान्तिकारी वेश बदलकर कर फरार होने में कामयाब हो गए।
अप्रैल 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेका। इतिहास में यह घटना असेम्बली बम काण्ड के नाम से विख्यात हुई। केन्द्रीय असेम्बली में जब मीटिंग चल रही थी तभी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने एक-एक बम फेंका। दोनों बम के फटने से वहां भगदड़ मच गई। बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त वहां से भाग सकते थे मगर भगत सिंह ने गिरफ्तार होने का मन बना लिया था। वे चाहते थे कि उनकी गिरफ्तारी से देश में अंग्रेजों के खिलाफ विपल्ब की आग और तेज हो तथा नौजवान सिर पर कफन बांधकर देश की आजादी के लिए आगे आयें।
बम फेंकने के बाद उन्होंने कुछ पर्चे भी असेम्बली में फेके। उनमें लिखा था-“बहरों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है इसलिए हमने यह बम फेके। हमारा उद्देश्य किसी को मारना नहीं है। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। भगत सिंह और उनके साथियों पर साण्डर्स हत्याकाण्ड तथा असेम्बली बमकाण्ड का मुकद्दमा चलाया गया। इस दौरान उन सबको लाहौर सेन्ट्रल जेल में रखा गया।
भगत सिंह एक प्रबुद्ध नौजवान थे। उन्होंने जेल में कई पुस्तकों का अध्ययन किया। जार्ज वर्नार्ड शा, चाल्र्स डिफिन्स, रूसो, माक्र्स, लेनिन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, लाला लाजपत राय, मिर्जा गालिब, उमर खैय्याम की पुस्तकों को पढ़ना उन्हें बहुत पसन्द था।
वे सन् 1929 से 1931 तक लगभग दो वर्ष जेल मे ंरहे। इस दौरान उन्होंने चार पुस्तकें लिखीं। भयभीत अंग्रेज सरकार ने इन्हें जेल से बाहर आने से पहले ही जब्त कर लिया। उनकी फांसी के बाद उनकी 404 पृष्ठ की डायरी मिली जिससे उनकी बौद्धिक रुचि की झलक मिलती है। क्रान्ति के बारे में उनकी धारणा बिल्कुल स्पष्ट थी अपनी डायरी में उन्होंने लिखा-“क्रान्ति से हमारा आशय खून खराबा नहीं है। क्रान्ति का विरोध करने वाले लोग केवल पिस्तौल, बम, तलवार और रक्तपात को ही क्रान्ति का नाम देते हैं परन्तु क्रान्ति का अभिप्राय यह नहीं है। क्रान्ति के पीछे की वास्तविकता शक्ति जनता द्वारा समाज की आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन करने की इच्छा होती है।“ भगत सिंह की यह डायरी आज भी राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है जो देश की एक अनमोल धरोहर है।
7 अक्टूबर सन् 1930 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। इन तीनों क्रान्तिकारियों को 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई। जिस समय भगत सिंह को फांसी दी गई उस समय उनकी उम्र कुल तेईस वर्ष तीन माह थी। आजादी की आस मन में लिए यह अधखिला पुष्प भारत माता की बलिवेदी पर न्यौछावर हो गया, मगर वे मरकर भी अमर हो गये। यह देश और समाज सदैव उनका ऋणि रहेगा।
सुरेश बाबू मिश्रा
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !