25 जून पर विशेष – आपातकाल – लोकतंत्र की अमावस्या
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिए गए एक महत्वपूर्ण फैसले के बाद देश में राजनैतिक घटना चक्र बहुत तेजी से घूमने लगा था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राजनारायण बनाम श्रीमती इन्दिरा गाँधी केस की सुनवाई करने के बाद अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली संसदीय क्षेत्र से श्रीमती इन्दिरा गाँधी का निर्वाचन भ्रष्ट साधनों के उपयोग के कारण रद्द कर दिया था। इस अभूतपूर्व फैसले से देश की राजनीति में भूचाल आ गया था।
इस साहसिक फैसले को सुनाने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज माननीय जगमोहन लाल सिन्हा का बरेली से गहरा नाता रहा था। उन्होंने बरेली कालेज में उच्च शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने सन् 1943 से 1955 तक बरेली में अधिवक्ता के रूप में कार्य किया। आज वे हमारे मध्य नहीं हैं मगर अपने इस ऐतिहासिक और निष्पक्ष फैसले के लिए वे हमेशा याद किए जायेंगे।
इस फैसले के बाद सभी को यह उम्मीद थी कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी नैतिकता के आधार पर प्रधानमन्त्री पद से इस्तीफा दे देंगी, मगर अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण उन्होंने ऐसा नहीं किया। जिससे विपक्ष हमलावर हो गया। उनके इस्तीफे की मांग करते हुए पूरे विपक्ष ने देशभर में धरना, प्रदर्शन एवं रैलियां करना शुरू कर दीं। पूरे देश में इन्दिरा जी के खिलाफ आन्दोलन तेज होता गया। विपक्ष द्वारा चलाए जा रहे इस आन्दोलन की अगुवाई लोकनायक जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। आन्दोलन को मिल रहे अपार जनसमर्थन को देखकर सत्ता का सिंहासन डोलने लगा।
25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्ष ने एक विशाल रैली का आयोजन किया। इस रैली में अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने विशाल सभा को सम्बोधित करते हुए दिल को झकझोर देने वाला भाषण दिया।
इस सबसे बौखलाकर श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने अपनी कुर्सी बचाने की खातिर संविधान के अनुच्छेद 352 का दुरुपयोग करते हुए पूरे देश में आपातकाल लगाने की घोषणा कर दी। आपातकाल लगाने के लिए सारे आवश्यक प्रावधानों को दरकिनार करते हुए यह घोषणा की गई थी। प्रावधानों के तहत देश के आधे से अधिक प्रान्त जब मांग करें, नोट भेजे कि कानून व्यवस्था संकट में है और केन्द्रीय कैबिनेट सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करे तब आपातकाल लगता है। इन सबका उल्लंघन करते हुए इन्दिरा गाँधी ने आपातकाल लगाने का प्रस्ताव मंजूरी हेतु राष्ट्रपति के पास भेजा। तत्कालीन राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद ने भी संवैधानिक औपचारिकताओं के निर्वाह न होने के बावजूद आपातकाल की घोषणा पर यत्रवत् हस्ताक्षर कर दिए। इस प्रकार चन्द घन्टों में ही सारी कार्यवाही निपटाकर देश पर आपातकाल थोप दिया गया। आपातकाल की यह घोषणा 25 जून 1975 को रात के 12 बजे की गई।
वर्तमान की नई पीढ़ी को लोकतन्त्र पर आई इस अमावस्या की शायद ही कोई जानकारी होगी मगर उस समय जो लोग किशोर, नौजवान या प्रौढ़ रहे होंगे उनके मन में इमर्जेन्सी की यादें आज भी सिहरन पैदा कर देती हैं। बहुत कठिन दौर था। पूरे देश में दमघोंटू माहौल था। कब किसे आकर पुलिस वाले गिरफ्तार कर लें किसी को कुछ पता नहीं था। अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबन्दी लगी हुई थी।
पूरे देश में गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया। संत-महन्त, राजनेता, समाजसेवी, छात्र नेता, पत्रकार सभी को मुल्जिम बनाकर जेलों में ठूंस दिया गया। इमरर्जेन्सी में किशोरों तक को नहीं बख्शा गया। उस समय के प्रतिपक्ष के नेता जेलों में ठूंस दिए गये। लोकनायक जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई, मुरली मनोहर जोशी, जार्ज फर्नांडीज, चैधरी चरण सिंह, राजनारायण सहित सभी प्रमुख नेताओं को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया।
कोई अपील नहीं, कोई न्यायिक व्यवस्था नहीं, न्यायालयों के सारे अधिकार समाप्त। लाखों लोगों की गिरफ्तारी की गई। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। 250 से अधिक पत्रकार जेल में डाल दिए गये। निरपराध नागरिकों के साथ उत्पीड़न का ऐसा तांडव जनता ने कभी नहीं देखा था। देश के लाखों लोग जेल में सलाखों के पीछे कैद कर दिए गये। चारों तरफ भय और दहशत का माहौल था।
प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोट दिया गया। छापेखानों की बिजली काट दी गई। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में छापने वाली सामग्री का प्रकाशन से पूर्व परीक्षण होने लगा। यदि किसी अखबार की सामग्री में आपातकाल की नीतियों की आलोचना शामिल पाई जाती तो उसका प्रकाशन बन्द कर दिया जाता था। आपातकाल लगाते समय श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने रेडियो पर भाषण देते हुए कहा था कि आपातकाल बहुत कम समय के लिए होगा। इसलिए देश की जनता को यह उम्मीद थी कि दो-तीन महीने में आपातकाल समाप्त हो जायेगा और लोगों को जेलों से रिहा कर दिया जायेगा, मगर जब ऐसा नहीं हुआ तो लोगों के सब्र का बांध टूटने लगा। देश में अन्दर ही अन्दर आपातकाल हटाने के लिए संघर्ष चलने लगा।
अक्टूबर 1975 से देश भर में लोकतंत्र की बहाली की मांग को लेकर सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तारियां देने का दौर शुरू हो गया। ऐसी स्थिति में कठोर यातनाओं का खौफ भी लोकतंत्र सेनानियों के साहस को डिगा नहीं सका। यह जानते हुए कि उन्हें अपनी बात रखने का मौका दिए बिना अनन्तकाल के लिए जेलों में निरुद्ध कर दिया जायेगा, सड़कों पर सत्याग्रहियों के जत्थे के जत्थे निकल आए। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। लोग लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए अपने कैरियर की चिन्ता किए बिना गिरफ्तारियां देते रहे। इमर्जेन्सी के खिलाफ लोकतन्त्र की आवाज बुलन्द करते हुए पूरे देश में लगभग पैंतालीस हजार लोगों ने अपनी गिरफ्तारियां दीं। सत्याग्रहों के दौरान यह नारा बहुत लोकप्रिय हुआ- सच कहना अगर बगावत है। तो समझो हम भी बागी हैं।
लोकतंत्र की बहाली की लिए लड़ा गया यह लोक समर किसी मायने में स्वतंत्रता समर से कमतर नहीं रहा। अगर स्वतंत्रता समर में फिरंगियों को भगाने का जुनून था तो इस समर में लोकतंत्र को तानाशाही के चंगुल से बाहर निकालने का जज्बा था। जिस तरह स्वतंत्रता समर में सहस्रों स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रान्तिकारियों ने आजादी के लिए अपनी आहुतियां दीं उसी तरह इस लोक समर में भी लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली के लिए सहस्रों लोकतन्त्र सेनानियों ने पुलिस की बर्बरता झेली और जेल की कालकोठरियों में कठोर यातना और कष्ट झेले।
आपातकाल के दौरान देश के एक लाख दस हजार आठ सौ छः लोग देश के विभिन्न कारागारों में निरुद्ध रहे। इनमें से चौंतीस हजार नौ सौ अठासी लोग मीसा के अन्तर्गंत और पचहत्तर हजार आठ सौ अठारह लोग डी.आई.आर. के तहत जेलों में बन्द रहे थे।
हजारों लोगों को गिरफ्तारी के दौरान कठोर यातनाएं झेलनी पड़ी। हजारों लोगों के परिवारों का पुलिस की नादिरशाही का शिकार होना पड़ा। पुलिस के अत्याचार अपनी चरम सीमा पर थे। लोकतंत्र बहाली के इस समर में देश के 90 लोग पुलिस और जेल की यातनाओं को झेलते हुए शहीद हो गए। शहीद होने वालों में सबसे अधिक संख्या उत्तर प्रदेश के लोगों की थी। उत्तर प्रदेश के 30 लोग शहीद हुए। शहीद होने वालों में बरेली के चेतराम लोधी भी शामिल थे। आपातकाल के दौरान जेलों और जेल से बाहर आकर जान गंवाने वाले लोगों के हर सूबे, हर भाषा और हर धर्म के लोग शामिल थे। इन सबका धर्म एक था और वह था अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतंत्र की बहाली।
आपातकाल के 19 महीनों तक देश में एक अजीब सी खामोशी रही जिससे श्रीमती इन्दिरा गाँधी को लगा कि विपक्ष एक फिजूल का गुब्बारा था, जिसे अखबारों और आन्दोलनकारियों ने हवा भरकर फुला दिया है। इससे उत्साहित होकर उन्होंने 18 जनवरी 1977 को चुनाव की घोषणा कर दी।
21 जनवरी 1977 के बाद राजनैतिक घटना चक्र बहुत तेजी से घूमा। विपक्ष के चार दलों के विलय के बाद जनता पार्टी बनी। जनता पार्टी का असर एक आंधी की तरह प्रबल हो गया। इस चुनाव में जनता पार्टी को अभूतपूर्व विजय मिली। 22 मार्च 1977 में मोरारजी देसाई की अगुआई में देश में जनता पार्टी की सरकार बनी और लोकतंत्र की बहाली हुई।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में आपातकाल के दौरान लोकतंत्र की बहाली के लिए लड़ा गया, यह पहला महासंग्राम था जिसमंे सम्पूर्ण देश ने अपनी भूमिका निभाई थी, परन्तु यह कैसा दुर्भाग्य है कि देश की नई पीढ़ी को इसकी कोई जानकारी नहीं है। आज केन्द्र और देश की सरकारों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे वर्तमान पीढ़ी को लोकतन्त्र रक्षक सेनानियों के बलिदानों एवं संघर्ष से अवगत कराएं।
आपातकालीन में नौजवानों द्वारा दी गई शहादत और कुर्बानियों को छात्रों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए तथा लोकतंत्र सेनानियों को स्वतंत्रता सेनानियों का दर्जा दिया जाये। जिससे हमारी पीढ़ी लोकतंत्र में आस्था और दृढ़ हो सके।
सुरेश बाबू मिश्रा
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !