1 सितम्बर जयंती पर विशेष-“अपनी हिन्दी गज़लों से साहित्य जगत में धूम मचा देने वाले दुष्यन्त कुमार “

दुष्यंत कुमार का नाम हिन्दी साहित्य में बड़े आदर के साथ लिया जाता है ।उन्होँने हिन्दी गजल के छेतृ में नये नये आयाम गढ़े ।उनकी कालजयी गजलों ने साहित्य जगत में धूम मचा दी ।आज कोई भी राजनीतिक सभा हो या फिर किसी यूनियन का धरना प्रदर्शन, कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम हो या फिर सहित्यिक गोष्ठी सभी में वक्ताओं के मुहँ से दुष्यन्त कुमार की शेरों की गूँज अबश्य सुनायी देती है ।

दुष्यंत कुमार का जन्‍म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था। जिस समय दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपालीतथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था। हिन्दी में भी उस समय अज्ञेय तथा गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताओं का बोलबाला था। उस समय आम आदमी के लिए नागार्जुन तथा धूमिल जैसे कुछ कवि ही बच गए थे। इस समय सिर्फ़ 44 वर्ष के जीवन में दुष्यंत कुमार ने अपार ख्याति अर्जित की।
उनके पिता का नाम भगवत सहाय और माता का नाम रामकिशोरी देवी था। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई ।

इसके बाद उन्होने नहटौर से हाईस्कूल तथा चंदौसी से इंटरमीडिएट किया ।उन्होने दसवीं कक्षा से ही कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया। इंटरमीडिएट करने के दौरान ही राजेश्वरी कौशिक से विवाह हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में बी०ए० और एम०ए० किया। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा और डॉ० रामकुमार वर्मा का सान्निध्य प्राप्त हुआ। कथाकार कमलेश्वर और मार्कण्डेय तथा कविमित्रों धर्मवीर भारती, विजयदेवनारायण साही आदि के संपर्क से साहित्यिक अभिरुचि को नया आयाम मिला।
मुरादाबाद से बी०एड० करने के बाद 1958 में आकाशवाणी दिल्ली में आये। मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अंतर्गत भाषा विभाग में रहे। आपातकाल के समय उनका कविमन क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठा जिसकी अभिव्यक्ति कुछ कालजयी ग़ज़लों के रूप में हुई, जो उनके ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ का हिस्सा बनीं। सरकारी सेवा में रहते हुए सरकार विरोधी काव्य रचना के कारण उन्हें सरकार का कोपभाजन भी बनना पड़ा। 30 दिसंबर 1975 की रात्रि में हृदयाघात से उनकी असमय मृत्यु हो गई। उन्हें मात्र 44 वर्ष की अल्पायु मिली।
1975 में उनका प्रसिद्ध ग़ज़ल संग्रह’साये में धूप’ प्रकाशित हुआ। इसकी ग़ज़लों को इतनी लोकप्रियता हासिल हुई कि उसके कई शेर कहावतों और मुहावरों के तौर पर लोगों द्वारा व्यवहृत होते हैं। 52 ग़ज़लों की इस लघुपुस्तिका को युवामन की गीता कहा जाय, तो अत्युक्ति नहीं होगी। इसमें संगृहीत कुछ प्रमुख शेर हैं-
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।

मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।

खास सड़कें बंद हैं कबसे मरम्मत के लिए, ये हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।

मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।

होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिए, इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिए।

गूँगे निकल पड़े हैं जुबाँ की तलाश में, सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।

एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।

तू किसी रेल-सी गुजरती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।
दुष्यंत कुमार ने नाटक उपन्न्यास,लघुकथाएं और कविताए भी लिखीं मगर उन्हें विशेष ख्याति उनकी हिन्दी गजलों के लिए मिली ।आज बे हमारे मध्य नहीं है मगर अपनी कालजयी गजलों के माध्यम से बे सदैव अमर रहेंगे ।

सुरेश बाबू मिश्र सेवानिवृत प्रधानाचार्य बरेली उत्तर प्रदेश ।

 

 

बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !

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