लघु कथा-फितरत
मेरे एक मित्र शर्मा जी की पत्नी की आज अस्पताल से छुट्टी हो गई थी। उनके गाल ब्लैडर में पथरी थी जिसका आपरेशन हुआ था। मेरे मित्र उन्हें घर ले जाने के लिए टैक्सी करने गए थे। मैं उनकी पत्नी की देखरेख के लिए अस्पताल में उनके पास था। टैक्सी स्टैण्ड अस्पताल के पास ही था।
जब काफी देर तक शर्मा जी टैक्सी लेकर नहीं लौटे तो मैं उन्हें देखने के लिए टैक्सी स्टैण्ड पहुंचा।
शर्मा जी बड़ा परेशान से एक टैक्सी के पास खड़े थे। वे शायद ड्राइवर से भाड़े के सम्बन्ध में मोलभाव कर रहे थे। उनके चेहरे पर परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे।
मुझे देखते ही वे बोले-“देखो इन टैक्सी वालों ने अंधेर मचा रखी है। सब के सब अस्पताल के पास होने का फायदा उठा रहे हैं। जानते हैं कि साथ में मरीज है तो टैक्सी तो करनी पड़ेगी। जब मैं तुम्हारी भाभी को घर से लेकर आया था तो टैक्सी वाले ने एक हजार रुपये लिये थे। मगर अब मैं दसियों ड्राइवरों से पूछ चुका हूँ मगर कोई भी बारह सौ रुपए से कम लेने को तैयार ही नहीं है।“
मैंने एक ड्राइवर से इस सम्बन्ध में बात की वह बोला-“साहब उधर से तो हर ड्राइवर इसलिए एक हजार रुपये में आ जाता है क्योंकि उसे वापसी में टैक्सी स्टैण्ड से सवारी मिलने की पूरी उम्मीद होती है। मगर स्टैण्ड से कोई बारह सौ रुपये से कम में नहीं जाना चाहता क्योंकि वहां से उसे वापसी में सवारी मिल ही जाएगी। इस बात की कोई गारण्टी नहीं होती है।“
मुझे उसकी बात जायज लगी इसलिए मैंने उससे कहा-“ठीक है भाई चलो, बारह सौ रुपये ही ले लेना।“
उसने टैक्सी स्टार्ट की। मेरे कहने पर शर्मा जी भी वेमन से टैक्सी में बैठ गए। वे अब भी भुनभुना रहे थे।
टैक्सी में बैठा मैं सोच रहा था कि शर्मा जी ने अपनी पत्नी के आॅपरेशन पर लगभग चालीस हजार रुपये खर्च कर दिए। उन्होंने एक बार भी डाक्टर से या मेडीकल स्टोर पर रुपए कम करने को नहीं कहा। मगर टैक्सी ड्राइवरों से एक-डेढ़ घण्टे से दो सौ रुपये बचाने के लिए मोलभाव कर रहे थे। शायद यही मानव मन की फितरत है।
सुरेश बाबू मिश्रा
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !