लघु कथा- गुलछर्रे
लाॅकडाउन के कारण कोई घर से ही नहीं निकल रहा है। पूरे दिन धक्के खाने के बाद बड़ी मुश्किल से एक सवारी मिली।“ रामवती के हाथ पर दस-दस के चार नोट रखते हुए गोविन्द बहुत ही मायूस स्वर में बोला।
इतने कम रुपए देख रामवती सोच में पड़ गई मगर गोविन्द को पहले से भी इतना दुखी देखकर रामवती को उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। उसने हैन्डपम्प से निकालकर गोविन्द को एक गिलास पानी पीने को दिया और खुद थैला लेकर सामान लाने के लिए बाजार चल दी।
रामवती को बाजार जाते देख उसके भूख से बिलबिला रहे बच्चों को खाना मिलने की उम्मीद बंध गई थी।
रामवती को समझ में ही नहीं आ रहा था कि इन चालीस रुपयों में से कितने का राशन, सब्जी ले और कितने का नमक मिर्च और घी। उसने सोचा कि तीस रुपए के चावल और दस रुपए की दाल ले लेते हैं खिचड़ी बना लेंगे, मगर उसे ध्यान आया कि आज घर में नमक भी नहीं है। गली में जो किराने की तीन-चार दूकानें खुली थीं उनमें किसी पर पांच रुपए वाला नमक का छोटा पैकेट नहीं था। चालीस रुपए में से सोलह रुपए की नमक की थैली लेने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। काफी देर तक वह इसी उधेड़बुन में खड़ी रही कि क्या खरीदा जाए।
तभी उसकी नजर गली में एक छोटी सी दूकान पर गई। वहां गर्मागर्म समोसे सिक रहे थे। समोसों की सोंधी-सोंधी महक से खिंची हुई वह दूकान पर जा पहुंची।
उसने पूछा-“भइया एक समोसा कितने का है ?“ दूकानदार ने उसकी ओर देखते हुए कहा-“एक-डेढ़ महीने से दुकान बन्द है। घर में फांके करने की नौबत आ गई है। बड़ी हिम्मत करके आज उधार सामान लाकर दुकान खोली है। ले जाओ चार रुपए समोसा लगा देंगे।“
काफी देर सोचने-समझने के बाद रामवती ने चालीस रुपए के दस समोसे ले लिए और घर की ओर चल दी।
समोसे देखकर बच्चे खुशी से उछल पड़े। रामवती ने सबको दो-दो समोसे दे दिए। सब समोसे खाने लगे।
सबको समोसे खाते देख रामवती की मकान मालकिन अपने पति से बोलीं-“हर समय पैसों का रोना रोती रहती है। अब देखो गुलछर्रे उड़ाये जा रहे हैं। सब खूब गर्मागर्म समोसे खा रहे हैं।“
सुरेश बाबू मिश्रा
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !