लघुकथा अर्थी
समाजसेवी राघव जी के आकस्मिक निधन का समाचार आज के अखबार में पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया। राघव जी शहर के जाने-माने समाजसेवी थे। हर एक के सुख-दुख में शामिल होना उनकी आदत में शुमार था। वे हर समय दूसरों की मदद के लिए तैयार रहते। इसलिए शहर में उनके हजारों प्रशंसक थे।
मैंने अखबार में अन्त्येष्टि का समय देखा। उनकी अन्त्येष्टि 11 बजे होनी थी। मैंने घड़ी पर नजर डाली। अभी साढ़े आठ बजे थे। मेरे राघव जी से काफी निकट सम्बन्ध रहे इसलिए पहले मैं उनके घर जाकर उनके परिवार को ढांढस बंधाना चाहता था। पत्नी बोली-“पता नहीं इस समय उनके घर कहां कहां से रिश्तेदार आए होंगे इसलिए कोरोना के खतरे को देखते हुए उनके घर जाना ठीक नहीं है। सीधे शमशान जाना।“
हालातों को देखते हुए मैंने उनकी बात मान ली। साढ़े दस बजे मैं शमशान चल दिया। उनके घर न पहुंच पाने से अन्दर ही अन्दर मन बड़ा बेचैन था। मैं सोच रहा था कि शमशान में शहर के हजारों लोग जमा होंगे अगर किसी ने पूछ लिया कि राघव जी के घर क्यों नहीं पहुंचे तो मैं क्या जवाब दूंगा।
इसी उधेड़बुन के बीच मैं शमशान पहुंच गया। वहां भीड़-भाड़ नहीं देखकर मुझे लगा कि शायद राघव जी की अर्थी अभी शमशान नहीं पहुंची है।
अपनी तसल्ली के लिए मैंने शमशान के गेट के पास खड़े एक सज्जन से पूछा-“क्या राघव जी की अर्थी अभी नहीं आई है।“
“उनकी अर्थी आ गई है और उनकी अन्त्येष्टि की तैयारी चल रही है।
तेज कदमों से चलता हुआ मैं वहां पहुंचा। मैं यह देखकर दंग रह गया कि वहां शहर के गिने-चुने लोग ही मौजूद थे। उनका पुत्र और छोटा भाई अन्त्येष्टि की तैयारी में लगे हुए थे। शेष मौजूद लोग अर्थी से काफी दूर खड़े थे मानो अर्थी में कोई बम रखा हो।
राघव जी शहर के हजारों लोगों की अन्त्येष्टि में शामिल हुए होंगे, सैंकड़ों लोगों की अर्थी को उन्होंने कंधा दिया होगा। मगर आज उनकी अन्त्येष्टि में शहर भर से केवल दर्जन भर लोगों को देखकर मन बहुत बेचैन हो गया था। एक सज्जन ने कहा कि उनके अपने खास रिश्तेदार ही नहीं आए हैं। जिस संस्था के वे एक जिम्मेदार पदाधिकारी रहे उसका कोई सदस्य वहां नहीं पहुंचा था।
शमशान में खड़ा मैं सोच रहा था कि कोरोना का यह कैसा भय है जिसे समाज को इतना संवेदनहीन बना दिया है।
सुरेश बाबू मिश्रा
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !