अनैतिकता की राजनीति में विलुप्त होते विचार व सिद्धांत
भारतवर्ष को संघमुक्त बनाए जाने का नारा अभी कुछ ही समय पूर्व नितीश कुमार द्वारा दिया गया था। आज वही नितीश कुमार 2019 में न केवल भारतीय जनता पार्टी की सत्ता में वापसी के लिए विश्वस्त दिखाई दे रहे हैं बल्कि उनकी राजनीति की अवसरवादिता नरेंद्र मोदी को ही 2019 का प्रधानमंत्री पुन: बनाने जैसी घोषणा करने पर भी उन्हें मजबूर कर रही है। तो क्या कल तक सर पर टोपी तथा कांधे पर अरबी स्कार्फ रखकर नमाजिय़ों की कतार में बैठने वाले, ईद तथा रोज़ा बिहार के मुस्लिम समुदाय के साथ करने वाले यहां तक कि मुस्लिम अकीदे के अनुसार अपने दोनों हाथ बुलंद कर अल्लाह से दुआ मांगने वाले नितीश कुमार ने धर्मनिरपेक्षता का आवरण फेंक कर हिंदुत्ववादी आवरण को धारण कर लिया है? और दूसरा इससे बड़ा सवाल यह कि क्या किसी भी धर्म का कल का कोई सांप्रदायिकतावादी नेता धर्मनिरपेक्षता का लिबादा ओढक़र स्वयं को धर्मनिरपेक्ष साबित कर सकता है? या कोई धर्मनिरपेक्षतावादी नेता सांप्रदायिकतावादी भी हो सकता है? या फिर यह सब राजनीति में होने वाली महज़ एक ऐसी नौटंकी है जो सत्ता को केंद्र बिंदु बनाकर की जाती है?
नितीश कुमार की चर्चा करने से पहले भारतीय राजनीति की पिछले दिनों की ही कुछ घटनाओं पर नजऱ डालना ज़रूरी है। भारतीय जनता पार्टी में कल्याण सिंह एक बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व कल्याण सिंह जैसे खांटी हिंदुत्ववादी नेता ने भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े अगुआकार समझे जाने वाले नेता मुलायमसिंह यादव से ‘राजनैतिक विवाह’ कर लिया था। इन दोनों के दो अलग-अलग राजनैतिक धु्रव होने का अंदाज़ा इनके राजनैतिक जीवन की सिर्फ एक-एक घटना से ही लगाया जा सकता है। मुलायम सिंह यादव ने 1990 में उग्र हिंंदुत्ववादी भीड़ को विवादित ढांचे तक न पहुंचने देने के लिए देश के संविधान,कानून तथा अपने पद की गरिमा व राजधर्म का पालन करते हुए कारसेवकों को विवादित ढांचे के करीब भी नहीं जाने दिया था। इस के लिए उन्हें सुरक्षा बलों से कठोरतम कार्रवाई भी करवानी पड़ी जिसमें कई लोग अपनी जान भी गंवा बैठे। ठीक इसके विपरीत मात्र दो वर्ष बाद ही उत्तर प्रदेश मेें सत्ता परिवर्तन के बाद जैसे ही कल्याण सिंह प्रदेश के सीएम बने 6 दिसंबर 1992 को इन्हीं कारसेवकों ने क्या कुछ कर दिखाया यह इतिहास बन चुका है। जऱा सोचिए कि क्या ऐसे परस्पर विरोधी विचार रखने वाले दो नेता कभी एक साथ एक ही राजनैतिक प्लेटफार्म पर खड़े हो सकते थे। परंतु देश ने कुछ दिनों के लिए यह राजनैकि नौटंकी भी देख ली। हालांकि शीघ्र ही कल्याण सिंह की पुन: ‘घर वापसी’ हो गई। और इस राजनैतिक आवागमन के बाद मुलायम सिंह भी यह कहते सुनाई दिए कि कल्याण सिंह से हाथ मिलाना उनकी बड़ी राजनैतिक भूल थी। परंतु मुलायम सिंह यादव को उनकी भूल का नतीजा मिला और 2014 के संसदीय चुनाव में वे केवल पांच सीटों पर जीत हासिल कर सके जबकि कल्याण सिंह से हाथ मिलाने से पूर्व अर्थात् 2009 में सपा के पास राज्य में 23 लोकसभा सीटें थीं।
इसी प्रकार का एक दूसरा नाम शंकर सिंह वाघेला का भी है। स्वयं सेवक संघ से बाल्यकाल से ही जुड़े रहे वाघेला ने स्वाभाविक रूप से अपने हिंदुत्ववादी संस्कारों के अनुरूप जनसंघ तथा बाद में भाजपा में ही अपनी राजनीति को परवान चढ़ाया। 1996-97 के मध्य वे गुजरात के सीएम भी रहे। परंतु राज्य में नरेंद्र मोदी की सक्रियता के बाद केशूभाल पटेल तथा अन्य भाजपाई नेताओं की ही तरह वाघेला का भी भाजपा से मोह भंग हो गया। पहले तो 1996 में उन्होंने भाजपा त्याग कर राष्ट्रीय जनता पार्टी नामक एक नए राजनैतिक दल का गठन किया। परंतु दो वर्षों बाद ही वे अपने दल-बल सहित 1998 में कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। हालांकि कांग्रेस के साथ उनका तालमेल काफी लंबे समय तक अर्थात् कुछ ही दिनों पूर्व तक रहा। परंतु आखिरकार उनके संस्कारों ने भी उन्हें देर तक कांग्रेस पार्टी में रहने नहीं दिया और वे भी किसी न किसी ‘तर्कसंगत’ बहाने के साथ कांग्रेस को अलविदा कह गये। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जिन्हें देखकर हम आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि यदि राजनैतिक संस्कारों की प्रतिबद्धता आड़े न आए तो वामपंथ,दक्षिपंथ अथवा मध्य मार्ग का अनुसरण करना या इनमें से कभी भी किसी मार्ग पर चल पडऩा या मार्ग बदल देना कोई मायने नहीं रखता। बशर्ते कि सत्ता व उज्जवल राजनैतिक भविष्य की गारंटी होनी चाहिए।
लाल बहादुर शास्त्री, गोविंद वल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी जैसे नेताओं के नाम सुनते ही ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में यह लोग देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के सबसे बड़े स्तंभ थे। और यह बात काफी हद तक सही भी है कि देश को धर्मनिरपेक्षता की राह पर ले जाने में तथा इसके धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की रक्षा करने में इन सभी नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। परंतु आज यह नेता या इनकी संतानें अथवा इनके कई परिजन संघ की हिंदुत्ववाद विचारधारा को आगे बढ़ाने वाली भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो चुके हैं। अब यहां फिर यही प्रश्र कि क्या सारी उम्र धर्मनिरपेक्षता के संस्कारों की गोदी में पलने वाले यह नेता हिंदुत्ववादी हो चुके हैं? या फिर यह इनके राजनैतिक स्वार्थ अथवा इनके उज्जवल राजनैतिक भविष्य का तक़ाज़ा है कि यह अपनी सत्ता,अपना राज सख तथा इससे मिलने वाले ऐश-ओ-आराम के लिए अपना सुरक्षित राजनैतिक भविष्य सुनिश्चित करें? ठीक उसी तरह जैसे नितीश कुमार ने किया है? भले ही इस समय धर्मनिरपेक्षतावादियों को नितीश कुमार का भाजपा से हाथ मिलाना नागवार क्यों न गुजऱ रहा हो परंतु उन्होंने ऐसा नया कुछ नहीं किया जो भारतीय राजनीति में पहली बार हुआ हो। जब नरेंद्र मोदी अपने राजनैतिक भविष्य की सुरक्षा हेतु गुजरात दंगों से लेकर लाल कृष्ण अडवाणी व मुरली मनोहर जैसे नेताओं को किनारे लगाने तक के खेल खेल सकते हैं,कांग्रेस हाईकमान के परिवार की बहू मेनका गांधी भाजपा में पुत्र सहित शामिल हो सकती है,ठाकरे घराना सत्ता के लिए विभाजित हो सकता है,नजमा हेपतुल्ला जैसी नेत्री जो स्वयं को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का राजनैतिक वारिस बताती हों वे भाजपा में शामिल होकर हिंदुत्तवादी एजेंडे को देश में लागू करने में मददगार साबित हो सकती हैं, सत्ता के लिए समाजवादी पार्टी में विघटन हो सकता है फिर रामविलास पासवान की ही तरह नितीश कुमार भी धर्मनिरपेक्ष दलों की भविष्य की उम्मीदों पर पानी फेर कर सांप्रदायिकतावादी राजनीति करने वालों के साथ क्यों नहीं खड़े हो सकते?
मेरे विचार से वे समीक्षक व विश्लेषक बहुत जल्दबाज़ी में हैं जो नितीश कुमार में कोई छिपा हुआ संघी तलाश कर रहे हैं या उनमें हिंदुत्ववाद की राजनीति करने वाला कोई छुपा हुआ नेता देख रहे हैं। चूंकि बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल ने नितीश कुमार की जनता दल यूनाईटेड से सीटों के आधार पर बढ़त ली थी और उसी दबाव के चलते उन्हें मंत्रिमंडल के गठन में लालू यादव की हर बात माननी भी पड़ी। ऐसे में नितीश कुमार के लिए यह एक स्वर्णिम अवसर था जबकि सीबीआई व ईडी लालू पर शिकंजा कस रही हो, उन्होंने एक तीर से कई शिकार खलने की कोशिश की है। वे स्वयं को भ्रष्टाचार विरोधी भी साबित करना चाह रहे हैं, लालू यादव को राजनैतिक नुकसान भी पहुंचाना चाह रहे हैं तथा साथ-साथ अपनी कुर्सी भी सुरक्षित रखना चाह रहे हैं। लिहाज़ा हम कह सकते हैं कि वर्तमान दौर अनैतकिता तथा सत्ता लोलुपता की राजनीति का एक ऐसा दौर है जिसमें सिद्धांत,विचार अथवा नैतिकता की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है।