बिहार का बवंडर
बिहार ने एक बार फिर देश की राजनीति में बवंडर ला दिया है. बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर इस्तीफा दे दिया और इसे के साथ ही मोदी और भाजपा के खिलाफ सबसे बड़ा और सफल बताया गया महागठबंधन खत्म हो गया है, पहले से ही बदहाल और भ्रमित विपक्ष के सामने अब पूरी तरह से निष्प्रभावी हो जाने का खतरा मंडराने लगा है. इस्तीतफा देने के तुरंत बाद ही नीतीश कुमार को बीजेपी का साथ मिल गया और करीब 16 घंटे बाद ही एक बार फिर से वे बिहार के सीएम बन चुके हैं. बिहार की राजनीति में मची इस नये बवंडर से सियासी पंडित भी अचंभित हैं.
नीतीश कुमार के एनडीए में वापसी को बहुत तेजी से अंजाम दिया गया, लेकिन इस्तीफा देने के तुरंत बाद जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नीतीश को बधाई दी और कुछ देर बाद बीजेपी की तरफ से नीतीश को बिना शर्त समर्थन की घोषणा कर दी गई. उससे पता चलता है कि इसकी पटकथा महीनों पहले से ही तैयार की जा रही थी. नीतीश कुमार भाजपा के साथ जाने के लिए सही वक्त का इंतजार कर रहे थे, पहले उन्होंने लालू परिवार की पूरी तरह से घिरने का इंतजार किया और यह भी ध्यान रखा कि तेजस्वी यादव को बलिदानी होने का कोई मौका भी ना मिल सके, माकूल माहौल बन जाने के बाद अंत में वे अपना ईमानदारी का झंडा उठाकर पुराने साथियों के खेमे में शामिल हो गये.
दरअसल महागठबंधन का हिस्सा होने के बावजूद भी भाजपा और नीतेश एक दूसरे के प्रति असाधारण रूप से विनम्र बने रहे, भाजपा हमेशा से ही नीतीश-लालू के जोड़ को बेमेल बताते हुये इसके किसी भी वक्त टूट जाने की भविष्वाणी करती रही. नीतीश कुमार ने भी भाजपा के लिए अपने दरवाजे खले ही रखे. पिछले करीब आठ-नौ महीनों से तो वे मोदी सरकार के नीतियों का खलेआम समर्थन करते आ रहे हैं और इस दौरान वे हर उस मुद्दे पर केंद्र सरकार के साथ खड़े नजर आये जिस पर अन्य विपक्षी पार्टियां मोदी सरकार को घेरने में लगी थीं.
नीतीश कुमार में राजनीतिक माहौल को भांपने की कला अदभुत है. उनके लिये सिद्धांतों और वैचारिक आग्रह ज्यादा मायने नहीं रखते हैं और उनका हर कदम अपने चुनावी नफे-नुक्सान को देख कर तय होता है, इस हिसाब से वे अपने लिये बिलकुल सही समय पर सही फैसले लेते रहे हैं. 1994 में लालू यादव से अलग होकर उन्होंने समता पार्टी बना ली थी कुछ दिनों बाद ही उन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया था, उस समय भाजपा के लिए ऐसा दौर था जब अकाली दल और शिवसेना जैसी दो पार्टियां ही उसके साथ गठबंधन करने को राजी होती थी, नीतीश का जुडऩा भाजपा के लिये बड़ी उपलब्धि थी. बदले में नीतीश और जॉर्ज तत्कालीन बाजपेयी सरकार में मंत्री बना दिये गये. 2002 में हुए गुजरात दंगों के बाद भी वे वाजपेयी सरकार में ही बने रहे जबकि रामविलास पासवान ने इस्तीफा दे दिया था. इस तरह से वे पहले भी 17 साल तक बीजेपी के साथ रह चुके हैं. 2013 में एनडीए से अलग होने के बाद जदयू को लोकसभा चुनावों में केवल दो सीटें मिलीं थीं. इसके बाद 2015 में उन्होंने विधानसभा चुनावों के लिए लालू और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बना लिया था, ये प्रयोग सफल रहा. महागठबंधन की जीत के बाद वे मोदी विरोधी खेमे के बड़े नेताओं में शुमार हो गये. शुरुआत में उनकी पूरी कोशिश थी 2019 के चुनाव में मोदी के खिलाफ वे विपक्ष का चेहरा बन सकें, लेकिन इसको लेकर कांग्रेस और अन्य पार्टियों की उदासीनता से उनके धैर्य ने जवाब दे गया. उन्हें मजबूत भगवा खेमे के खिलाफ विपक्ष के कमजोर और प्रभावहीन होने का भी एहसास था. पिछले कुछ महीनों से वे विपक्ष की तरफ से भाजपा और संघ परिवार के खिलाफ नया नैरेटिव और एजेंडा पेश करने का शिगूफा छोडऩे लगे थे. 2014 में धमाकेदार जीत के बाद ऐसे कम ही मौके आये हैं जब मोदी-शाह के नेतृत्व में फर्राटे भर रहे भगवा रथ पर लगाम लगा हो. बिहार में महागठबंधन और दिल्ली में आप ने नरेंद्र मोदी के विजयरथ को आगे नहीं बढऩे दिया था. इन दोनों राज्यों में भाजपा की करारी हार से ही विपक्षी दलों में सम्भावना जगी थी कि मोदी लहर को रोका जा सकता है.
बिहार का महागठबंधन मोदी के खिलाफ सबसे सफल माने जाने वाले प्रयोग माना जाता था और इसकी मिसालें देकर अन्य राज्यों में भी इस माडल को अपनाने की वकालत की जाती थी. भाजपा नहीं चाहती है कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में मोदी के बरअक्स कोई प्रभावी चेहरा हो इसलिए वह लगातार हर उस संभावित चेहरे को निशाना बना रही है जिसमें विपक्ष का चेहरा बनने की थोड़ी भी संभावना है. फिर वो चाहे, ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल हों या फिर राहुल गाँधी. चूंकि नीतीश कुमार के साथ लालू यादव भी जुड़े थे इसलिए यहाँ निशाने पर लालू यादव और उनके परिवार को लिया गया.लालू यादव को निशाना बनाकर भाजपा को डबल फायदा हुआ है. नीतीश कुमार उसके पाले में आ गये है और इसी के साथ ही 2019 के लिए उनकी दावेदारी खत्म हो गयी है. ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा देने वाले नीतीश कुमार का लालू प्रसाद यादव का साथ छोडक़र भाजपा के साथ आना भगवा खेमे के लिये एक बड़ी कामयाबी है. इससे पहले से ही दंतहीन विपक्ष और कमजोर हो गया है और 2019 के लिए भाजपा का रास्ता लगभग पूरी तरह से साफ हो गया है. दरअसल 2014 के बाद यह साल भाजपा के लिये सबसे शानदार साल साबित हो रहा है.
नीतीश कुमार पूरे विपक्ष के सामने जो सवाल पेश किये थे उसके पीछे मंशा चाहे कुछ भी रही हो लेकिन उन सवालों को टाला नहीं जा सकता है. सिर्फ मोदी, भाजपा या संघ परिवार की आलोचना से बात नहीं बनने वाली है. विपक्ष को भाजपा के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति की ठोस तस्वीर पेश करनी पड़ेगी जो कि फिलहाल दूर की कौड़ी नजर आती है.