9 जून बलिदान दिवस पर-आज़ादी के अमर नायक विरसा मुंडा
विरसा मुंडा ने देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने मुंडा आदिवासियों को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का बिगुल फूंका। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ ‘उलगुलान’ चलाया। उलगुलान आदिवासी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है आन्दोलन। उन्होंने ही सबसे पहले “अंग्रेजों अपने देश को वापस जाओ“ का नारा बुलन्द किया। वे आजादी के अमर नायक रहे। अंगंेज शासक उनके नाम से बुरी तरह घबराते थे। वे अपने काल के भगत सिंह थे। विरसा मुंडा का जीवन काल केवल पच्चीस वर्ष का रहा मगर इस बीच उन्होंने अंग्रेज शासकों के नाक में दम कर दिया और वे आजादी के अमर नायक बन गए।
विरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर सन् 1875 को बिहार के रांची जिले के उलीहाती गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम सुगना पुर्ती और माँ का नाम करमी पुर्ती था। मुंडा एक आदिवासी समुदाय था और छोटा नागपुर पहाड़ पर झारखण्ड में रहता था। मुंडा आदिवासियों की अपनी अलग सत्ता और अलग रीति-रिवाज थे। मुंडा लोग अपनी आदिवासी रीति रिवाजों एवं भारतीय संस्कृति से बहुत प्रेम करते थे और अपनी स्वाधीनता में किसी का हस्तक्षेप उन्हें बर्दाश्त नहीं था।
विरसा मुंडा की प्रारम्भिक शिक्षा सल्गा गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई। बाद में उन्होंने चाईबासा के जीईएल चर्च कालेज में प्रवेश लिया और वहां से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। उस समय देश की पराधीनता का काल था।
अंग्रेजों के आने से पहले झारखण्ड में आदिवासियों का राज था। अंग्रेज शासकों का हस्तक्षेप झारखण्ड में बढ़ने लगा, इसलिए आदिवासियों को अपनी स्वाधीनता का खतरा अनुभव होने लगा। विरसा मुंडा के युवा मन में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग धधक उठी।
उधर अंग्रेज शासकों तथा उनके कृपापात्र जमींदारों एवं साहूकारों के अत्याचार आदिवासियों पर दिन पर दिन बढ़ते जा रहे थे। अंग्रेज शासक आदिवासियों की जमीन एवं जंगलों पर कब्जा कर उन्हें बंधुआ मजदूर बना देना चाहते थे। नौजवान विरसा मुंडा ने मुंडा नौजवानों को संगठित कर विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ ‘उलगुलान’ अर्थात् आन्दोलन का ऐलान कर दिया।
उनके द्वारा चलाए जा रहे उलगुलान का मुख्य उद्देश्य अपनी स्वाधीनता, संस्कृति, जमीन एवं जंगलों की रक्षा करना था। उन्होंने देश में सबसे पहले “अंग्रेजों अपने देश को वापस जाओ“ का नारा बुलन्द किया। धीरे-धीरे यह नारा पूरे झारखण्ड में गूंजने लगा। बिरसा मुंडा सशस्त्र आन्दोलन में विश्वास रखते थे।
सन् 1864 में उन्होंने झारखण्ड के मुंडाओं को संगठित कर अंग्रेज शासकों द्वारा चलाई जा रही जबरन लगान वसूली के खिलाफ एक बड़ा आन्दोलन चलाया। वे अंग्रेज शासकों से लगान माफी की मांग कर रहे थे। इस आन्दोलन की सफलता से अंग्रेज शासकों में खलबली मच गई। अंग्रेज शासकों को झुकना पड़ा और लगान माफी की मांग माननी पड़ी।
विरसा मुंडा की लोकप्रियता और ताकत दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी इससे अंग्रेज शासक घबरा उठे और उन्होंने बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने के लिए जगह-जगह दविशें दीं और 1865 में उन्हें गिरफ्तार कर हजारी बाग जेल भेज दिया गया।
दो वर्ष बाद विरसा मुंडा जेल से रिहा हुए। जेल से बाहर आने के बाद धीरे-धीरे बिरसा मुंडा को यह अनुभव होने लगा कि अब सशस्त्र आन्दोलन के अलावा अपनी स्वाधीनता की रक्षा करने का और कोई विकल्प नहीं बचा है।
1897 में बिरसा मुंडा और उनके चार सौ साथियों ने तीर-कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। यहां अंग्रेज पुलिस के साथ उनकी जबर्दस्त भिड़न्त हुई जिससे अंग्रेजों में हड़कम्प मच गया।
सन् 1898 में तांगा नदी के किनारे अंग्रेज सेना और मुंडा आन्दोलनकारियों के बीच जबर्दस्त लड़ाई हुई जिसमें अंग्रेज सेना को पराजय झेलनी पड़ी।
जनवरी 1900 में डोमवाड़ी पहाड़ी पर विरसा मुंडा आदिवासियों की एक सभा को सम्बोधित कर रहे थे , तभी अचानक अंग्रेज सेना ने पहाड़ी को चारों तरफ से घेरकर गोलीबारी शुरू कर दी। अंग्रेजों की इस बर्बर कार्यवाही में बड़ी संख्या में औरतें एवं बच्चे भी शहीद हुए। इससे आदिवासियों में गहरा रोष फैल गया।
अंग्रेज शासक यह बात भली-भांति समझ चुके थे कि विरसा मुंडा उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिए अंग्रेजों ने आदिवासियों को लालच देकर विरसा मुंडा को गिरफ्तार करने की रणनीति बनाई। उनकी योजना कामयाब रही और इनाम के लालच में कुछ आदिवासियों ने ही विरसा मुंडा को सोते समय गिरफ्तार करा दिया।
विरसा मुंडा पर देशद्रोह का झूठा मुकदमा चलाया गया और उन्हें जेल भेज दिया गया। अंग्रेश शासक विरसा मुंडा से इतने भयभीत थे कि उनके आदेश पर जेल में लगातार विरसा मुंडा को धीमा जहर दिया गया, जिसके फलस्वरुप विरसा मुंडा की 9 जून सन् 1900 को मृत्यु हो गई। वे स्वतंत्रता के लिए बलिदान हो गए।
विरसा मुंडा की समाधि रांची में कोकर के निकट डिस्टलरी पुल के पास बनी है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम विरसा मुंडा के नाम पर ही रखा गया है। रांची केन्द्रीय कारागार का नाम भी बदलकर बिरसा मुंडा केन्द्रीय कारागार किया गया है। वे आजादी के अमर नायक थे और इन स्मृतियों के माध्यम से वे सदा अमर रहेंगे।
सुरेश बाबू मिश्रा
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, बरेली
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बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !