1 अगस्त जयंती पर विशेष-महान स्वतंत्रता सेनानी एवं हिंदी के प्रवल पक्छ्धर राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे । देश की आजादी में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।उनकी गिनती कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में होती थी ।जब बे रास्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए उस समय कांग्रस के अधिवेशनों में एवं कार्यक्रमों में सारे प्रस्ताव अन्ग्रेजी में पारित होते थे ।यह देखकर पुरुषोत्तम दास टंडन को वड़ा कष्ट हुआ । उन्होँने हिन्दी को कांग्रेस के कामकाज की भाषा बनाने के लिए अथक प्रयास किया ।उन्हें सफलता मिली और 1925 में आयोजित कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर हिन्दुस्तानी भाषा को अंग्रेजी भाषा के स्थान पर कांग्रेस के कामकाज की भाषा घोषित किया गया ।
पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म 1 अगस्त, 1882 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई. इसके बाद उन्होंने लॉ की डिग्री हासिल की और 1906 में लॉ की प्रैक्टिस के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट में काम करना शुरु किया.
पुरुषोत्तम दास टंडन जी ने कांग्रेस के साथ 1899 से ही काम करना शुरु कर दिया था. अपने क्रांतिकारी कार्यकलापों के कारण उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था और 1903 में अपने पिता के निधन के बाद उन्होंने एक अन्य कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की. 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड का अध्ययन करने वाली कांग्रेस पार्टी की समिति के वह एक सदस्य थे. गांधी जी के कहने पर वे वकालत को छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. वे सन् 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन सिलसिले में बस्ती में गिरफ्तार हुए और उन्हें कारावास का दण्ड मिला.
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने 10 अक्टूबर, 1910 को नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी के प्रांगण में हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की. इसी क्रम में 1918 में उन्होंने ‘हिंदी विद्यापीठ’ और 1947 में ‘हिंदी रक्षक दल’ की स्थाना की. राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिंदी के प्रबल पक्षधर थे. वह हिंदी में भारत की मिट्टी की सुगंध महसूस करते थे. हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में स्पष्ट घोषणा की गई कि अब से राजकीय सभाओं, कांग्रेस की प्रांतीय सभाओं और अन्य सम्मेलनों में अंग्रेजी का एक शब्द भी सुनाई न पड़े.
भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पूर्व से ही साम्प्रदायिकता की समस्या अपने विकट रूप में विद्यमान रही. कुछ नेताओं ने टंडन जी पर भी सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया. साथ ही उनके और नेहरु जी के संबंधों को लेकर भी हमेशा मतभेद रहे हैं. हिंदी प्रभार सभा द्वारा हिंदी की लिपि को लेकर एक मतभेद भी काफी चर्चा में आया था. दरअसल हिंदी लिपि के लिए गांधीजी समेत कई अन्य महापुरुष “हिन्दुस्तानी” जो कि हिंदी और ऊर्दू का मिश्रण थी उसे मान्य बनाना चाहते थे पर टंडन जी ने देवनागरी को ही हिंदी की मानक लिपि मानने पर जोर दिया. इस बात पर कांग्रेस में जबरदस्त बहस हुई और अन्तत: हिंदी राष्ट्रभाषा और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई. हिंदी को राष्ट्रभाषा और ‘वन्देमातरम्` को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था. उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे.
1961 में हिंदी भाषा को देश में अग्रणी स्थान दिलाने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार दिया गया. 23 अप्रैल, 1961 को उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘भारत रत्न (Bharat Ratan) की उपाधि से विभूषित किया गया. 1 जुलाई, 1962 को हिंदी के परम प्रेमी पुरुषोत्तम दास टंडन जी का निधन हो गया. आज बे हमारे मध्य नहीं है मगर बे हिन्दी प्रेमियों के हृदय में सदेव अमर रहेंगे ।
सुरेश बाबू मिश्र सेवानिवृत प्रधानाचार्य बरेली ।
बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !