‘न्याय’ के समक्ष नई चुनौतियों की आहट?
हमारे देश में लोकतंत्र को चार स्तंभों पर टिका हुआ माना जाता है। परंतु वर्तमान दौर में इन चार स्तंभों में कार्यपालिका, संसदीय व्यवस्था तथा प्रेस जैसे स्तंभ साफतौर पर लडखड़ाते व डगमगाते दिखाई दे रहे हैं। निश्चित रूप से ऐसे में पूरे देश में इस समय न्यायपालिका जैसे सबसे मज़बूत स्तंभ को ही सबसे विश्वसनीय व भरोसेमंद समझा जा रहा है। इसका कारण यही है कि न्यायालय ने इंदिरा गांधी से लेकर लालू प्रसाद यादव तक तथा शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती से लेकर आसाराम व गुरमीत सिंह तक के संबंद्ध में ऐसे अनेक फैसले सुनाए हैं जिन्हें देख व सुनकर देश की जनता का न्यायपालिका के प्रति न केवल सम्मान बढ़ा है बल्कि इस पर जनता का विश्वास भी कायम है। अब यहां तुलनात्मक नज़रिए से यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं कि लोकतंत्र के शेष स्तंभों के प्रति जनता का कितना विश्वास है और इन से वह कितनी उम्मीद रखती है। संक्षेप में यूं समझा जा सकता है कि वर्तमान दौर को देश के लोकतंत्र के लिए सबसे कठिन,संकटकालीन व खतरनाक दौर कहा जा रहा है। सवाल यह है कि क्या देश की न्याय व्यवस्था के रूप में देखे जाने वाले देश के लोकतंत्र के सबसे मज़बूत व भरोसेमंद स्तंभ के समक्ष भी अब नयी चुनौतियों की आहट सुनाई देने लगी है? क्या अदालती फैसलों का मज़ाक उड़ाना या उसकी आलोचना करना जो कभी अदालती अवमानना कही जाती थी, अब यह सब गुजऱे ज़माने की बातें बनकर रही गई हैं? क्या अब हर खास-ओ-आम यहां तक कि कोई दुश्चरित्र या आरोपी अथवा अपराधी भी अदालत द्वारा गंभीर से गंभीर मुकद्दमों में सुनाए जाने वाले अदालती फैसलों पर उंगली उठाने के लिए या उसकी आलोचना करने के लिए स्वतंत्र हो चुका है? और यदि देश में ऐसी स्थिति पैदा हो रही है तो भारतीय लोकतंत्र के लिए यह स्थिति कितनी खतरनाक साबित हो सकती है?
हरियाणा के सिरसा जि़ले में स्थित डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत सिंह के विरुद्ध बलात्कार के दो मुकद्दमों में पंचकुला की सीबीआई अदालत ने अपना फैसला सुनाया। फैसले में जस्टिस जगदीप सिंह लोहान ने न्याय व संविधान की लाज रखते हुए तथा गुरमीत सिंह के विशाल साम्राज्य की परवाह न करते हुए यहां तक कि अपनी व अपने परिवार की सुरक्षा की चिंता किए बिना इस दुष्कर्मी स्वयंभू बाबा को दो अलग-अलग बलात्कार के मामलों में दस-दस वर्ष के कारावास की सज़ा सुनाई तथा दो पीडि़त साध्वियों को 15-15 लाख रुपये जुर्माना दिए जाने का आदेश दिया। गुरमीत सिंह के विरुद्ध आने वाले किसी भी संभावित फैसले के बाद कानून व्यवस्था को लेकर कैसी स्थितियां बन सकती हैं इसका अंदाज़ा गुप्तचर एजेंसियों से लेकर राज्य व केंद्र सरकार सभी को था। इसी वजह से पूरे पंचकुला शहर में धारा 144 भी लगा दी गई थी। परंतु न तो डेरा समर्थकों ने धारा 144 लागू होने की परवाह की न ही राज्य सरकार इस धारा का पालन करवाते हुए डेरा समर्थकों को बड़ी तादाद में पंचकुला में एकत्रित होने से रोक सकी। इसके बाद फैसला सुनाए जाने के बाद पंचकुला सहित हरियाणा व पंजाब के कई शहरों में हिंसा का क्या आलम देखने को मिला यह सब मीडिया के माध्यम से पूरा देश देख रहा था।
25 अगस्त को गुरमीत सिंह के विरुद्ध आने वाले फैसले के बाद डेरा समर्थकों का फैसले से नाराजग़ी दिखाना या फैसले से असहमत होना एक स्वाभाविक सी बात है। क्योंकि कोई भी बड़े से बड़ा अपराधी प्राय: अपने अपराध को स्वीकार करते नहीं देखा जाता और न ही उसके परिजन या समर्थक आसानी से अपने पक्ष को दोषी या मुजरिम स्वीकार करते हैं। परंतु अदालती फैसले आमतौर पर साक्ष्यों व गवाहों के बयान के आधार पर सुनाए जाते हैं। गुरमीत सिंह के बलात्कार संबंधी मामले में भी ऐसा ही हुआ। गौतलब है कि गुरमीत सिंह पर हत्या,अपने भक्तों को नंपुसक बनाए जाने जैसे और भी कई आपराधिक मुकद्दमे चल रहे हैं जिनपर फैसला आना अभी बाकी है। 25 व 28 अगस्त के मध्य गुरमीत सिंह से जुड़े हुए और भी कई ऐसे गंभीर मामले सामने आए जिन्हें सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। किस प्रकार उसके सुरक्षा गार्डों ने उसके अदालत में पेश होने में बाधा डाली यहां तक कि अदालती फैसला आने के बाद उसे अदालत से भगा ले जाने की साजि़श रची गई, उसके समर्थकों द्वारा पांच मिनट में देश को तबाह कर देने की धमकी दी गई, एके 47 व पैट्रोल बम जैसी खतरनाक विस्फोटक सामग्रियां बरामद की गईं। और तो और अय्याशी व वासना का भूखा यह शख्स अपनी मुंहबोली बेटी के साथ संबंध बनाने जैसा अनैतिक आरोप भी झेल रहा है।
हरियाणा के सिरसा जि़ले में स्थित डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत सिंह के विरुद्ध बलात्कार के दो मुकद्दमों में पंचकुला की सीबीआई अदालत ने अपना फैसला सुनाया। फैसले में जस्टिस जगदीप सिंह लोहान ने न्याय व संविधान की लाज रखते हुए तथा गुरमीत सिंह के विशाल साम्राज्य की परवाह न करते हुए यहां तक कि अपनी व अपने परिवार की सुरक्षा की चिंता किए बिना इस दुष्कर्मी स्वयंभू बाबा को दो अलग-अलग बलात्कार के मामलों में दस-दस वर्ष के कारावास की सज़ा सुनाई तथा दो पीडि़त साध्वियों को 15-15 लाख रुपये जुर्माना दिए जाने का आदेश दिया। गुरमीत सिंह के विरुद्ध आने वाले किसी भी संभावित फैसले के बाद कानून व्यवस्था को लेकर कैसी स्थितियां बन सकती हैं.
क्या ऐसे दुष्कर्मी,राक्षसी प्रवृति रखने वाले व्यक्ति के विरुद्ध अदालत को अपना फैसला सुनाने से पहले यह देखना ज़रूरी था कि इस फैसले का परिणाम क्या होगा? यह देखना अदालत का काम है या सरकार का? परंतु भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह,भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज एक और सांसद पुष्पेंद्र सिंह चंदेल,हरियाणा के शिक्षा मंत्री रामविलास शर्मा जैसे और भी कई सत्ताधारी नेताओं के विवादित तथा अदालत को नीचा दिखाने वाले बयानों से तो यही प्रतीत होता है। एक ओर तो पूरा देश न्यायधीश जगदीप सिंह लोहान के साहस तथा उनकी निर्भयता व निष्पक्षता की तारीफ करते नहीं थक रहा। जस्टिस जगदीप सिंह जैसे लोगों की वजह से ही भारतवासियों का विश्वास न्यायपालिका पर मज़बूत होता है तो दूसरी ओर अमित शाह फैसले के बाद हुई हिंसा के लिए हिंसक भीड़ या हिंसा को नियंत्रित न कर पाने के लिए राज्य सरकार के बजाए अदालत को ही हिंसा का जि़म्मेदार ठहरा रहे हैं। जिनके विरुद्ध कभी अदालत ने राज्य से तड़ीपार रहने का आदेश दिया था अब वही लोग अदालत को सलाह देने लगे हैं? इसी प्रकार साक्षी महाराज डेरा समर्थकों की भावनाओं को आहत करने के लिए अदालत को दोषी करार दे रहे हैं। और तो और सुब्रमण्यम स्वामी व साक्षी महाराज जैसे विवादित लोग इस फैसले को हिंदू संस्कृति पर हमले जैसा फैसला भी बता रहे हैं। गौरतलब है कि साक्षी महाराज जैसा सांसद जो स्वयं विवादों में रहकर शोहरत बटोरते रहना चाहता है वह खुद भी बलात्कार व हत्या जैसे मामलों में आरोपी रहा है। गुरमीत सिंह के साथ-साथ यह लोग आसाराम,प्रज्ञा ठाकुर,कर्नल पुरोहित व सचिदानंद जैसे अपराधियों की भी एक ही स्वर में पैरवी करते देखे जा रहे हैं।
क्या ऐसी स्थिति जबकि धर्म के नाम पर चलने वाले काले कारोबार को बेनकाब करने का काम अदालत द्वारा किया जा रहा हो और इसी संदर्भ में कानून व्यवस्था बनाए रखने में सरकारें पूरी तरह से नाकाम साबित हो रही हों और तो और धर्म उद्योग चलाने वाले कारोबारियों तथा सत्ता के मध की सांठगांठ उजागर हो रही हो,राज्य के मंत्री रामविलास शर्मा स्पष्ट रूप से यह कहते सुने जा रहे हों कि ‘आस्था पर धारा 144 नहीं लगाई जा सकती’ और उनके इस बयान के निहितार्थ का परिणाम पंचकुला सहित अशांत क्षेत्रों के लोगों को भुगतना पड़ रहा हो। और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि मंत्री किसी अपराधी बाबा को उसको राजनैतिक समर्थन हासिल होने के बदले उसे मान-सम्मान देते व मोटी सहयोग राशियां देते दिखाई दे रहे हों ऐसे में क्या यह मुनासिब है कि अपनी काली करतूतों पर पर्दा डालने के लिए ऐसी हिंसक घटनाओं का जि़म्मेदार न्यायालय को ही ठहरा दिया जाए? निश्चित रूप से यह हालात खतरनाक हैं तथा न्यायालय के सामने नई चुनौतियां पेश कर रहे हैं।