स्वास्थ्य व शिक्षा तंत्र को दुरुस्त करने की कवायद को प्राथमिकता दें
देश की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं क्यों बदहाल हैं? इस विषय पर बंद कमरे में बहुत बात होती है, नीतियां बनती हैं, निर्देश जारी होते हैं, सर्वे जारी होती हैं और अंत में खामियों और नाकामी का ठीकरा एक सरकार दूसरी सरकार पर डालकर कागज के पुलिंदों की शक्ल में कमेटी व रिपोर्ट का खेल खेलती रहती है.
जब तक स्वास्थ्य व शिक्षा तंत्र को जमीनी स्तर पर दुरुस्त करने की कवायद को प्राथमिकता सरकारें नहीं देंगी तब तक न देश के हालत बदलेंगे न ही देश का कोई विकास होगा. किसी भी देश का भविष्य इन्ही दो मजबूत स्तंभों पर टिका होता है और अगर यही पिलर चरमरा कर गिर गए तो इस देश को अफ्रीका की तरह महामारी की चपेट में फंसे मुल्क की तरह देखा जायेगा आया फिर अशिक्षित मुल्कों की श्रेणी में हमारा नाम अव्वल होगा.
अस्पलातों की बदहाली देखकर ये समझा जा सकता है कि भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र पर्याप्त और अच्छी चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता के मामले में गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है। आर्थिकए, सामाजिक सूचकांकों पर आम तौर पर बेहतर और अग्रणी माने जाने वाले राज्यों की हालत भी निराश करने वाली है। ऐसे में ये सवाल उठता है कि चिकित्सा सेवाओं के विस्तार और उनकी उपलब्धता को बढ़ाने के मामले में चूक कहां हो रही है।
हमारे नीति-नियंता इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि देश और समाज की तरक्की के उनके दावे तब तक कोरे साबित होते रहेंगे,जब तक देश के समूचे शिक्षा तंत्र को जमीनी स्तर पर दुरुस्त करने की कवायद प्राथमिकता से नहीं की जाएगी। कोई देश बीमार शिक्षा व्यवस्था के बलबूते आगे नहीं बढ़ सकता। वहीं, चोरी के सहारे डिग्रियां बटोरने वाला समाज विकास का ठीक-ठीक सपना भी नहीं देख सकता है। बिहार टॉपर्स घोटाले के बाद इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता है कि देश में शिक्षा माफियाओं का तंत्र कितना मजबूत और संगठित है।
शिक्षा माफियाओं और सरकारी तंत्र का गठजोड़ शिक्षा व्यवस्था पर पूरी तरह काबिज है। देश में सरकारी नियंत्रण वाले प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों की ही हालत नहीं खराब है, बल्कि उच्च शिक्षा में भी हम दुनिया में बहुत पीछे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता और मात्रा दोनों के मामले में हम अपने बराबर के देशों से पीछे हैं। 18 से 23 वर्ष के बीच की कुल आबादी में उच्च शिक्षा के लिए पंजीकृत लोगों का अनुपात भारत में करीब 20 फीसदी के आसपास है। दूसरी ओर, कई देश इस मामले में हमसे बहुत आगे हैं। चीन में यह अनुपात 28 फीसदी, ब्राजील में 36 और जापान में 55 है।
यही हाल स्वस्थ्य सेवाओं का है. देश में स्वास्थ्य सेवाओं का सच यह है कि देश में 27 फीसदी मौतें सिर्फ इसलिए हो जाती हैं क्योंकि लोगों को वक्त पर मेडिकल सुविधा नहीं मिलती. भारत स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का सिर्फ 1.4 फीसदी खर्च करता है. अमेरिका जीडीपी का 8.3 फीसदी स्वास्थ्य पर तो चीन 3.1 फीसदी खर्च करता है. दक्षिण अफ्रीका 4.2 फीसदी तो ब्राजील 3.8 फीसदी खर्च करता है.
इस आंकड़े को थोड़ा और कायदे से समझने की कोशिश करें तो अमेरिका में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर औसतन 4541 डॉलर, चीन में 407 डॉलर, दक्षिण अफ्रीका में 554 डॉलर खर्च होते हैं लेकिन भारत में एक व्यक्ति पर औसतन सिर्फ 80.3 डॉलर खर्च होते हैं.
और सरकारी चिकित्सा सेवा इस कदर दम तोड़ चुकी है कि जिसकी जेब में पैसा है, वो सरकारी अस्पताल की तरफ देखना ही नहीं चाहता. यही वजह है कि निजी क्षेत्र स्वास्थ्य को धंधा मानकर उसमें निवेश कर रहा है. दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की भागीदारी औसतन 40 फीसदी होती है,लेकिन भारत में निजी क्षेत्र हेल्थ सर्विस में 70 फीसदी खर्च करता है. अमेरिका तक में निजी क्षेत्र की भागीदारी सिर्फ 51 फीसदी है. वैसे, एक सच ये भी है कि देश की खराब मेडिकल सुविधाओं पर कभी कोई आंदोलन नहीं होता. कोई धरना-प्रदर्शन नहीं होता. क्योंकि शर्म किसी को नहीं आती.