मोदी जनता का भरोसा जीतने में सफल
हिमाचल प्रदेश के मतदाता वैकल्पिक रूप से कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी को चुनते आए हैं। इस ट्रेंड का लाभ बीजेपी को मिला है। कांग्रेस भले ही गुजरात चुनाव हार गई हो लेकिन प्रदेश में उसकी सीटों की तादाद के साथ-साथ उसका मत प्रतिशत भी बढ़ा है। चुनाव से पहले के सिर्फ तीन महीने में उसने अपने पक्ष में जबर्दस्त माहौल बना लिया। अगर राज्य में विपक्ष के रूप में पार्टी मजबूती से सक्रिय रहती और बीजेपी की तरह उसका भी जमीनी संगठनात्मक आधार होता तो नतीजे शायद कुछ और होते।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों का प्रदेश की सियासत पर चाहे जो भी असर हो, राजनीति के लिए इसमें कई संदेश छिपे हैं। वैसे भी खासकर गुजरात के चुनाव को नैशनल पॉलिटिक्स के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा था। इन दोनों राज्यों में बीजेपी ने जीत हासिल कर फिलहाल चैन की सांस ली है। गुजरात में तो वह हार से बाल-बाल बची है, जो उसके लिए संतोष की बात है। इसकी एक व्याख्या यह भी की जा रही है कि मोदी मैजिक आज भी बरकरार है। प्रचार में अतिशय भागीदारी और पद की मर्यादा के छोर तक चले जाने वाले कुछ कदमों के चलते अपनी चमक एक हद तक खो देने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता का भरोसा जीतने में सफल रहे। उन्होंने गुजराती अस्मिता का दांव एक बार फिर खेला, जो चल गया। जाहिर है, लोगों में बीजेपी से नाराजगी तो है, पर वे अभी इतने हताश भी नहीं हुए हैं कि सरकार बदलने के बारे में सोचें। हालांकि उन्होंने बीजेपी को एक झटका तो दे ही दिया है।
हिमाचल प्रदेश के मतदाता वैकल्पिक रूप से कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी को चुनते आए हैं। इस ट्रेंड का लाभ बीजेपी को मिला है। कांग्रेस भले ही गुजरात चुनाव हार गई हो लेकिन प्रदेश में उसकी सीटों की तादाद के साथ-साथ उसका मत प्रतिशत भी बढ़ा है। चुनाव से पहले के सिर्फ तीन महीने में उसने अपने पक्ष में जबर्दस्त माहौल बना लिया। अगर राज्य में विपक्ष के रूप में पार्टी मजबूती से सक्रिय रहती और बीजेपी की तरह उसका भी जमीनी संगठनात्मक आधार होता तो नतीजे शायद कुछ और होते। जाहिर है, आने वाले कुछ राज्यों के इलेक्शन और 2019 के आम चुनावों में बीजेपी और कांग्रेस दोनों को अपनी रणनीति बदलनी होगी।
राहुल अगर जमीनी स्तर पर युवा नेतृत्व को बढ़ावा दें तो बीजेपी के लिए कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं। बीजेपी को समझ लेना होगा कि केंद्र सरकार की योजनाएं अब जनता की कसौटी पर कसी जा रही हैं और समाज का एक बड़ा तबका खुद को आहत महसूस कर रहा है। हिंदुत्व और भावनात्मक मुद्दों की सीमाएं उजागर हो गई हैं और लोग ठोस नतीजे चाहते हैं। अगर बीजेपी अपनी गलतियां सुधार ले तो उसकी आगे की राह आसान हो जाएगी। हालांकि बीजेपी की जीत ने क्षेत्रीय दलों का असमंजस बढ़ा दिया है। उनमें से ज्यादातर का उदय कांग्रेस विरोध से हुआ है, लेकिन अभी उनके लिए अस्तित्व का संकट कांग्रेस से कहीं ज्यादा बीजेपी की तरफ से है। आने वाले दिनों में राहुल की एक परीक्षा यह भी होगी कि वह दो पोल्स के बीच झूल रहे क्षेत्रीय दलों से कैसे रिश्ते बनाते हैं। लेकिन उनकी असल चुनौती देश के लिए एक नया सपना बुनने की है, जो काम कांग्रेस कब का छोड़ चुकी है।
इधर, लगभग दो दशक तक कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष पद संभालने के बाद सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंप दी। उन्होंने इस मौके पर ठीक ही रेखांकित किया कि कांग्रेस के सामने आज जैसी चुनौतियां हैं वैसी पहले कभी नहीं रहीं। हालांकि सोनिया ने जब पार्टी अध्यक्ष पद संभाला था, तब भी पार्टी कोई अच्छी स्थिति में नहीं थी। राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस अचानक अधर में लटकी हुई पार्टी लगने लगी थी और 1991 के चुनाव में सरकार इसकी ही बनने के बावजूद इसके कमजोर होने का सिलसिला जारी रहा। इससे पहले खुद राजीव ने भी अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक बाद सरकार और पार्टी की जिम्मेदारी संभाली थी। इस लिहाज से देखें तो राहुल गांधी अपनी मां और पिता, दोनों से ज्यादा कठिन हालात में नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।