विकास नीति एवं वर्तमान भारतीय कृषकों की समस्याएं
बिनोवा जी ने जो कहा था कि जमीन बांटने से मसला हल होने वाला नहीं है. इस बात को बाद में सबने भुला दिया. आज भी किसानों की समस्या क्या है? 1947 के पहले हम क्या थे? भारत को सोने की चिडिय़ा कहा जाता था. लूट की व्यवस्था शुरू हुई अंग्रेजों के समय में, जब स्टीम इंजन का शोध हुआ, और मेकेनाइज इंडस्ट्रीलाइजेसन होने लगा. उसके लिए लगने वाला कच्चा माल, उसको लूटने की जरूरत महसूस हुई, उसके लिए बाजार की जरूरत महसूस हुई, इसलिए अफ्रीका और एशिया के देशों को यूरोप ने गुलाम बनाना शुरू किया. मार्क्स ने कहा था, पूंजी का संचय श्रम की लूट से होता है. उसी समय जर्मनी की एक महिला अर्थशास्त्री थी, रोजा लेगजम्बर्ग उन्होंने कहा था कि, पूंजी का संचय कच्चे माल की लूट से भी होता है.आगे कहा था कि इसीलिए गुलाम देश बनाये गये हैं, कि गुलाम देशों से कच्चा माल लूटें. इंग्लैंड क्यों आया भारत? यहां कपास पैदा होता था, विदर्भ कपास की भूमि है. कपास को लूटकर, उनको मेनचेस्टर, लंकाशायर की कपड़ा मिलों में ले जाना था. वहां उसका कपड़ा बनाकर, उसको फिर महंगे दाम से फिर उसको यहां बेचना था. सस्ता कपास-महंगा कपड़ा ये उनकी नीति थी. मेरे दादा के पास जमीन क्यों आयी. दादा-परदादा गांव में साहूकार थे. खेती उस समय घाटे का धंधा था. किसान साहूकारों से जमीन का कर देने के लिए उधार लेते थे. जमीनें साहूकारेां के घर में जाती थी. 1947 के बाद की कहानी भी यही है, हम स्वतंत्र हुए. हमने तिरंगा फहराने का अधिकार ले लिया. नीतियां हमने अंग्रेजों की चलायीं. विदर्भ का नक्शा देखें. आपको आर्वी से पुलगांव तक की रेलवे लाइन दिखती है. मुर्तिजापुर से यवतमाल की रेलवे लाइन दिखती है. अंग्रेजों ने जब ये कलकत्ता-बंबई रेलवे लाइन डाली, तो छोटी-छोटी रेलवे लाइन क्यों डाली. यहां के लोगों को पंढरपुर की यात्रा, काशी बनारस की यात्रा हो इसके लिए डाली क्या? नहीं, ये कपास की बड़ी मंडियां थीं. यहां की कपास की गांठे, बड़ी रेलवे लाइन पर जाएं, और वहां बंबई के बंदरगाह में जाएं और वहां से मेनचेस्टर जायें. एक प्रकार से ये हमारे खून को चूसने के लिए रक्त वाहनियां थी, ये रेलवे लाइनें. ये विकास का मॉडल उन्होंने बनाया.
स्वतंत्र भारत में, इसके खिलाफ किसान आन्दोलन नहीं हुए, ऐसी बात नहीं है. किसान आन्दोलन हुए. इन किसान आन्दोलन को जमीनों के बंटबारे तक ही सीमित रखा गया. 1947 के बाद हम अनाज के मामले में अमेरिका पर निर्भर होने लगे. उसी समय लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था, की सोमवार का व्रत करिए. उन्होंने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था. इतना ही नहीं अनाज पैदा करने वाले किसान के पसीने को सही मूल्य मिले, इसके लिए कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की थी. गेहूं के दाम, धान के दाम बढ़ाने की बात कही थी. दुर्भाग्य से वो समय भी पंद्रह महीने,
अट्ठारह महीने से ज्यादा नहीं चल पाया. उसके बाद फिर इंदिरा गांधी जी का राज आया. 1974 में आपातकाल आया. वहां से जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति प्रारंभ हुई. अंधेरे में एक प्रकाश जयप्रकाश-जयप्रकाश हमारी पीढ़ी ने ये घोषणाएं दीं, सत्ता परिवर्तन हुआ. पर वो भी नहीं टिका, मुझे याद है मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे. उनके पद से उतरने के बाद जो चुनाव आया. सौभाग्य से मुझे दो दिन उनके साथ रहने का मौका मिला. उस समय भी मैंने उनसे ये बात कही, बहुत बहस की. उस समय मैं बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था. खेती की लूट का मन में बड़ा दर्द था. मैंने कहा, ‘आप सत्ता में आए, पर आते ही आपने आनाज के और कृषि उत्पन्न के दाम कम कर दिए.’ मोरारजी देसाई ने जवाब दिया, ‘हमारे देश की कम खर्चे की अर्थव्यवस्था ही देश के लिए ठीक है.’ मैंने कहा, ‘आपकी बात ठीक है, आपने अनाज के एवं कृषि उपज के दाम कम किये ये ठीक है, पर औद्योगिक उपज के दाम कम नहीं कर पाये आप.’ उन्होंने जवाब दिया, ‘हमारी गलती ये हुई है कि पहले, वो ये कि हमने, कोयले का नेशनलाजेशन किया, उससे कोयला मंहगा हो गया, जिस कारण ऊर्जा महंगी हो गयी. ऊर्जा महंगी होने से लागत मूल्य बढ़ गया. तो मैं उसी दिशा में जाने का प्रयास कर रहा हूं.’ हमारा मोरारजी देसाई से मतभेद होगा.
सत्ता बदली और इंदिराजी की सत्ता आयी. आपातकाल आया. जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति आयी. सत्ता बदली बाद में फिर इंदिरा जी की सत्ता आयी. इसी बीच में ‘हरित क्रांति’ का दौर आया. देश को अनाज के क्षेत्र में स्वाबलंबी बनाना. ये जो नीति आयी इसमें नये बीज, उन्नत बीज, हाइब्रिड बीज, रासायनिक खाद, सिंचाई कीटाणुनाशक इस तरह की औद्योगीकरण पर आधारित नीति आ गयी. उत्पादन बढ़ा, पंजाब और हरियाणा ने क्रांति करके बता दी. 1973 में पहला पेट्रोलियम क्राइसिस आया. इंदिरा जी ने एक रात में यूरिया के दाम 50 प्रतिशत बढ़ा दिए. पचास रुपये का जो कट्टा था वो सौ रुपये का हो गया. डीएपी के दाम बढ़ा दिए, कीटनाशक के दाम बढ़ा दिए. आप देखेंगे कि पूरे देश में 1975-1976 के बाद में किसानों के आन्दोलनों की एक बाढ़ सी आ गयी. 1980 के बाद जब हम शेतकरी संगठन के लिए काम करते थे, शरद जोशी के नेतृत्व में हमने ये काम किया. यहां पर किसानों का बहुत ताकतवर आन्दोलन खड़ा हुआ. अस्सी से नब्बे ये किसानों का दशक था, ये सही है इसमें अतिशियोक्ति नहीं है. पूरे देश में आन्दोलन खड़े हो रहे थे. तमिलनाडु में नारायण स्वामी नायडू के नेतृत्व में, कर्नाटक में प्रो. निंनियन स्वामी के नेतृत्व में आंदोलन खड़०ा हो रहा था, पंजाब-हरियाणा में भी बीकेयू का आंदोलन था. चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत तो बहुत देरी से इस आन्दोलन में आये.
ये आन्दोलन क्यों खड़े हो रहे थे? देश की पंचवर्षीय योजनाओं की नीतियों के विकास की पोल खोल रहे थे. खास तौर से ये नकार रहे थे. पंचवार्षिक योजनाओं के विकास का जो ढकोसला है, ये हमें लूटकर किया जा रहा है. ये संदेश किसान आन्दोलनों से जा रहा था, और एक अच्छा आन्दोलन खड़ा हो रहा था. उसी समय अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद का विवाद प्रारंभ हुआ. उसी समय गैट की बैठक शुरू हुई थी. उस उरुग्वे वार्ता में ही, खेती का विषय पहली बार आया था. नहीं तो खेती उससे बाहर थी. ये विषय अमेरिका एवं यूरोप के सब्सिडी के झगड़े के कारण आया था. 1986 में शुरू हुई उरुग्वे वार्ता 2004 में खत्म हुई. 2004 में ही डब्ल्यूटीओ ‘विश्व व्यापार संगठन’ की स्थापना हुई. राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के चलते हमारे देश में उरुग्वे वार्ता की कहीं चर्चा नहीं है. उस समय किसी भी राजनीतिक पार्टी ने इस विषय पर बात नहीं की, कि ये लोग क्यों झगड़ रहे हैं, सब्सिडी क्या विषय है. 1990 में नयी आर्थिक नीति आयी. ये आर्थिक नीति विकास की नीति है, ये ढोल पीटा गया, और उस विकास की क्या स्थिति है आज? आज इस देश का अन्नदाता किसान, आज आत्महत्या कर रहा है.
1995-96 के बाद दुनिया के बाजार में कृषि उपज के दाम गिरने लगे थे. विश्व के बाजार में मंदी आ गयी थी. 1997 से 2003 तक 110 लाख गांठे कपास की आयात हुई थी. पहली किसान आत्महत्या 1997 में आंध्र प्रदेश में हुयी. जब अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री थे. तब आंध्रप्रदेश के चन्द्रबाबू नायडू सीएम थे. सरकार किसी की भी हो, पर नीतियां क्या हैं? जिनको विकास नीतियां कहते हैं, वे कहां ले जाती हैं हमें? किसानों ने उत्पादन नहीं बढ़ाया ऐसी बात नहीं है. उत्पादन बढ़ा है, इस बात को स्वीकार किया हरित क्रांति के नेता प्रो. स्वामीनाथन ने. प्रो. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में ‘किसान कमीशन’ बनाया था, उसकी रिपोर्ट देते समय स्वामीनाथन जी ने सरकार से कहा, ‘खेती का विकास जितना उत्पादन बढ़ रहा है, इससे ना गिनते हुए, किसान की आमदनी कितनी बढ़ रही है, इससे मापा जाये.’
मैं एक उदाहरण देता हूं. मैंने 1972 में कपास बेचा ढाई सौ रुपए क्विंटल. एक तोला सोने की कीमत भी 1972 में ढाई सौ, पौने तीन सौ रुपए थी. एक क्विंटल कपास में एक तोला सोना बारह ग्राम सोना आ जाता था. उस समय एक क्विंटल अनाज का दाम अस्सी रुपए थी. तीन क्विंटल अनाज बेचकर एक तोला सोना मिल जाता था. आज छह-सात क्विंटल कपास देकर एक तोला सोना आता है.