बार-बार नहीं चढ़ती ‘काठ की हांडी’

baar-baar-nahi-chadtiइसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र की विधायिका व्यवस्था में सक्रिय कोई भी राजनैतिक दल इस एकमात्र उद्देश्य के लिए पूरी तरह सक्रिय व कार्यरत रहता है कि किसी भी प्रकार से उसे सत्ता हासिल हो सके और वह सत्ता में आने के बाद अपने राजनैतिक एजेंडे को लागू कर सके। और सत्ता में आने के बाद उसका पूरा प्रयास अब यह होता है कि वह किसी भी तरह से सत्ता को अपने हाथ से जाने न दे। भारतवर्ष में ऐसे ही अनैतिक राजनैतिक हालात का सामना 1975 में उस समय किया था जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय से चुनाव संबंधी एक मुकद्दमा हारने के बावजूद इंदिरा गांधी ने नैतिकता के आधार पर अपनी अदालती हार को स्वीकार कर प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के बजाए देश में आपातकाल की स्थिति की घोषणा कर सत्ता में बने रहने जैसा तानाशाही पूर्ण फैसला  लिया था। देश और दुनिया में इंदिरा गांधी के इस कदम को तानाशाही भरा कदम बताया गया था तथा इस घटनाक्रम को लोकतंत्र का काला दौर,प्रेस की आज़ादी का गला घोंटना तथा लोकतंत्र की हत्या जैसे विशेषणों से नवाज़ा गया था। परिणामस्वरूप 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में अजेय समझी जाने वाली इंदिरा गांधी को भारतीय लोकतान्त्रिक   व्यवस्था के अंतर्गत् होने वाले चुनाव में जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता कुछ इस तरीके  से दिखाया गोया ऐसा महसूस होने लगा कि शायद कांग्रेस पार्टी व इंदिरा गांधी दोबारा कभी सत्ता का मुंह भी नहीं देख सकेंगी। परंतु मात्र ढाई वर्षों के बाद ही जनता पार्टी की सरकार से भी देश की जनता का मोह भंग हो गया और 1979 में कांग्रेस पार्टी इंदिरा गांधी के ही नेतृत्व में पुन: सत्ता में आ गई।

उपरोक्त उदाहरण यह समझ पाने के लिए काफी हैं कि देश की जनता कब,किसके लिए क्या फैसला ले ले कुछ कहा नहीं जा सकता। परंतु भारतीय लोकतंत्र के ऐसे फैसले यह ज़रूर दर्शाते हैं कि यहां के मतदाता राजनैतिक छल-कपट,पाखंड तथा तानाशाही जैसी विसंगतियों को एक सीमा तक तो सहन कर सकते हैं परंतु जब पानी सर से ऊपर हो जाए तो 1977 और 1979 जैसे परिणाम भी सामने आ सकते हैं। बेशक आपातकाल का दौर भारतीय राजनीति का एक ऐसा काला दौर था जिसे आज भी कांग्रेस विरोधी दलों के लोग 25 जून 1975 के दिन विरोध दिवस के रूप में याद करते हैं। परंतु राजनीति का वर्तमान दौर संभवत: 1975-77 से भी अधिक भयावह तथा अंधकारमय प्रतीत हो रहा है। बेशक इस समय देश में आपातकाल की घोषणा तो नहीं की गई है परंतु वर्तमान केंद्रीय सत्ता भी अपने-आप को सत्ता में बचाए रखने के लिए और सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत बनाए रखने के लिए किसी भी नैतिक या अनैतिक कार्यों से परहेज़ नहीं कर रही है। 1975 में यदि प्रेस की आज़ादी पर सेंसरशिप की तलवार लटकी हुई थी तो आज की प्रेस को या तो खरीदा जा चुका है या डरा-धमका कर अथवा उसपर अपनी ‘कृपा’ बरसा कर उसे अपने नियंत्रण में किया जा चुका है।

2014 में देश के मतदाताओं को जो सपने दिखाकर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई थी और नरेंद्र मोदी को एक चमत्कारी प्रधानमंत्री की रूप में देख रही थी अब उसी जनता को यह समझ में आ चुका है कि 2014 के चुनावों से पूर्व किए गए वादे महज़  आश्वासन मात्र थे और वह सब लच्छेदार भाषण केवल सत्ता में आने के लिए ही दिए जा रहे थे। स्वयं भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ऐसे ही वादों को ‘चुनावी जुमला’ बता चुके हैं।

2014 में देश के मतदाताओं को जो सपने दिखाकर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई थी और नरेंद्र मोदी को एक चमत्कारी प्रधानमंत्री की रूप में देख रही थी अब उसी जनता को यह समझ में आ चुका है कि 2014 के चुनावों से पूर्व किए गए वादे महज़  आश्वासन मात्र थे और वह सब लच्छेदार भाषण केवल सत्ता में आने के लिए ही दिए जा रहे थे। स्वयं भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ऐसे ही वादों को ‘चुनावी जुमला’ बता चुके हैं। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी अपने चुनाव में किए गए वादों को पूरा करने के बजाए अपना पूरा ध्यान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के उन गुप्त हिंदुत्ववादी एजेंडे को लागू करने में दे रही है जिनका कि चुनाव पूर्व न तो जनसभाओं में कोई जि़क्र था न ही भाजपा के पक्ष में मतदान करने वालों ने उस समय ऐसा सोचा था कि भाजपा अपने चुनावी वादे पूरे करने के बजाए संघ के गुप्त एजेंडे को लागू करने में लगाएंगी। इस समय देश में इतिहास बदले जा रहे हैं,जीत को हार और हार को जीत लिखा जा रहा है, देशभक्त को देशद्रोही साबित करने की कोशिश की जा रही है। देश की गंगा-जमनी तहज़ीब जिसे हम सदियों से अनेकता में एकता के दर्शन के रूप में जानते व मानते रहे हैं उस संस्कृति के विषय में सत्ता के मुखिया यह कहते सुनाई दे रहे हैं कि दो अलग-अलग धर्मों व संस्कृतियों के लोग एक साथ नहीं रह सकते। शहरों,कस्बों व गांव के नाम बदले जा रहे हैं। स्कूल व कॉलेज के पाठ्यक्रमों में अपने पक्ष,मत तथा सोच व विचारधारा के अनुरूप बदलाव किया जा रहा है। जिस संविधान की शपथ लेकर वर्तमान सरकार सत्ता में आई है उसी संविधान से छेड़छाड़ करने की कोशिशें की जा रही हैं।

परंतु उपरोक्त बातों में से कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिससे एक आम भारतवासी को रोजग़ार मिल सके,उसकी भूख मिट सके, उसके बच्चे को सही शिक्षा या परिवार के स्वास्थय की रक्षा हो सके। मंहगाई मिट सके या गरीब,मज़दूर व किसान को दो वक्त की रोटी की गारंटी हासिल हो सके। परंतु इतना ज़रूर है कि इस प्रकार की फितनापरस्त बातों से देश में अशांति का वातावरण ज़रूर फैलता है और समाज में वैचारिक आधार पर मत विभाजन होने की प्रबल संभावना रहती है। बड़े आश्चर्य की बात है कि देश की नरेंद्र मोदी सरकार 2014 में कांग्रेस के यूपीए के शासनकाल को निठल्ला बताते हुए व कोसते हुए जिन भारी-भरकम वादों के साथ सत्ता में आई थी आज लगभग साढ़े तीन वर्ष का शासन पूरा कर लेने के बाद भी अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए तथा अपने किए गए वादों को पूरा न कर पाने के चलते आज भी कांग्रेस पार्टी को ही कोसती हुई नजऱ आ रही है। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और योगी आदित्यनाथ सहित पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल तथा विभिन्न भाजपा शासित राज्यों के सीएम अब भी अपनी उपलब्धियां तो कम गिनाते हैं कांग्रेस की नाकामियों का ढिंढोरा अधिक पीटते हैं। गोया कांगेस मुक्त भारत का नारा देने वालों को आज भी कांग्रेस का भय सता रहा है। निश्चित रूप से सत्ता के यह चहेते 1979 के घटनाक्रम की पुनरावृति होते हुए देख रहे हैं। गुरदासपुर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की भारी विजय हो या गुजरात,महाराष्ट्र,आंध्र प्रदेश,उत्तर प्रदेश, दिल्ली,उत्तराखंड या पंजाब जैसे राज्यों में होने वाले अनेक निकाय अथवा विश्वविद्यालय स्तर के चुनाव परिणाम। देश के युवाओं एवं मतदाताओं के रुख से साफ होने लगा है कि 2019 संभवतया 1979 की पुनरावृति करने जा रहा है।

गत दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में अपना चुनावी भाषण पूरी तरह से कांग्रेस  विरोध पर ही केंद्रित रखा जबकि उन्हें अपनी उपलब्धियों तथा योजनाओं के नाम पर वोट मांगना चाहिए। परंतु बड़े ही आश्चर्यजनक रूप में यह देखा जा रहा है कि गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को भविष्य में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पूर्व जिस संकटकालीन दौर से गुजऱना पड़ रहा है गत् पंद्रह वर्षों में भाजपा को ऐसी दयनीय स्थिति का सामना कभी नहीं करना पड़ा। मीडिया प्रबंधन के परिणामस्वरूप भले ही गुजरात में भाजपा की स्थिति अच्छी दिखाई दे रही हो परंतु हकीकत तो यही है कि भाजपा नेताओं को जगह-जगह काले झंडे दिखाए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री से लेकर अन्य सभी पार्टी नेताओं की जनसभाओं से जनता नदारद है। प्रदर्शनकारियों पर पुलिस अत्याचार हो रहा है। जनता भाजपा के चुनावी पोस्टर व होर्डिंग तक लगाना पसंद नहीं कर रही है। गोया ऐसा प्रतीत होने लगा है कि मोदी सरकार एक ऐसी काठ की हांडी साबित हो सकती है जो बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती।

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