अर्थव्यवस्था के आंकड़े और ज़मीनी सच्चाईयां?
देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली ने एक बार फिर यह विश्वास दिलाया है कि घरेलू अर्थव्यवस्था के बुनियादी हालात मज़बूत हैं। जेटली के अनुसार भारत पिछले तीन साल से सबसे तीव्र गति से बढऩे वाली प्रमुख अर्थव्यवस्था बना हुआ है। अपनी इस बात के समर्थन में उन्होंने सकल घरेलू उत्पाद तथा विदेशी मुद्रा भंडार में हो रही बढ़ोतरी से संबंधित कई आंकड़े भी प्रस्तुत किए। वित्तमंत्री ने यह भी घोषणा की कि अर्थव्यवस्था में और तेज़ी लाने के लिए सरकार ने सार्वजनिक बैंकों को अगले दो वर्षों में दो लाख ग्यारह हज़ार करोड़ रुपये की पूंजी उपलब्ध कराने का निर्णय भी किया है। ऐसा फैसला करने का मकसद यह है कि बैंकों की ऋ ण देने की क्षमता बढ़ सके जिससे छोटे व मंझोले उद्योगों को बढ़ावा मिले व रोजग़ार के अवसर बढ़ सकें। सवाल यह है कि क्या वित्तमंत्री द्वारा बताए जा रहे अर्थव्यवस्था संबंधी आंकड़े देश की ज़मीनी सच्चाईयों से भी मेल खाते हैं अथवा नहीं? यदि वित्तमंत्री के शब्दों पर गौर करें तो उन्होंने अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी में केवल तेज़ी नहीं बल्कि ‘बहुत तेज़ी’ शब्द का भी इस्तेमाल किया है। गोया उनके अनुसार देश में आम लोगों के अच्छे दिन आ चुके हैं और भारतवर्ष गत् तीन वर्षों से अच्छे दिनों के दौर से ‘बहुत तेज़ी’ से गुजऱ रहा है।
आंकड़ों की इस बाज़ीगरी का प्रभाव हकीकत में बड़े कारपोरेट घरानों व सरकार के कृपा पात्रों पर ज़रूर पड़ता दिखाई दे रहा है। यानी एक ओर तो बैंक के डिफाल्टर बड़े उद्योगपति अपनी पूंजी में लगातार तेज़ी से इज़ाफा भी कर रहे हैं, दूसरी ओर बैंकों का अरबों रुपये का लोन भी हड़प किए बैठे हैं। ज़ाहिर है देश की अर्थव्यवस्था को दिशा देने में इन कारपोरेट व औद्योगिक घरानों की ही महत्वूपर्ण भूमिका होती है। कोई उद्योगपति भारत से ऋ ण लेकर दूसरे देशों में अपना औद्योगिक साम्राज्य बढ़ा रहा है तो कोई यहां के करदाताओं का पैसा लेकर विदेशों में भाग कर पनाह लिए बैठा है। किसी राजनैतिक दल का फंड तेज़ी से दिन दूना रात चौगुना होता जा रहा है तो कहीं सत्ताधारी राजनैतिक दल के मुखिया के सुपुत्र अपनी आय को एक वर्ष में सोलह हज़ार गुणा बढ़ाकर आर्थिक लाभ कमाने का विश्व कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। कल तक दूसरों से बीड़ी मांग कर पीने वाला तथा तंबाकू,खैनी मांग कर खाने वाला कोई नेता मात्र एमएलए बनने के कुछ ही दिन बाद करोड़पति बन जाता है और यदि देश के सौभाग्य से ऐसा ही कोई व्यक्ति मंत्री पंद पर सुशोभित हो गया फिर तो समझिए कि उसने अपनी आने वाली सात पुश्तों तक के ‘अच्छे दिन’ का प्रबंध कर डाला। केवल यही वर्ग नहीं बल्कि इस समय मीडिया घरानों में भी सरकार के पक्ष में गुणगान करने में एक प्रतिस्पर्धा दिखाई दे रही है। जो मीडिया घराने इस चाटुकार प्रतिस्पर्धा में जितना आगे है उसके उतने ही ‘अच्छे दिन’ आए हुए हैं। निश्चित रूप से यह सब देखकर तो एक बार में ऐसा ही प्रतीत होता है बावजूद इसके कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा व अरूण शौरी तक कई वरिष्ठ आर्थिक विशेषज्ञ इस विषय पर समय-समय पर सरकार को आईना दिखाते रहे हैं फिर भी बड़ ही आश्चर्यजनक रूप से देश की अर्थव्यवस्था वित्तमंत्री के अनुसार ‘बहुत तेज़ी’ से आगे बढ़ रही है?
अब आईये कुछ ज़मीनी सच्चाईयों पर भी नजऱ डालने की कोशिश करते हैं। भारत के विपक्षी दल आगामी आठ नवंबर को नोटबंदी की ‘पहली बरसी’ के अवसर पर पूरे देश में काला दिवस मनाए जाने की तैयारी कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक हज़ार व पांच सौ रुपये की प्रचलित भारतीय मुद्रा प्रतिबंधित किए जाने की घोषणा के बाद पूर्व प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह ने सकल घरेलू उत्पाद में दो प्रतिशत की गिरावट आने की जो आशंका जताई थी,बाद में बिल्कुल सही साबित हुई। उधर सरकार ने यह फैसला यह बताते हुए लिया था कि नोटबंदी के परिणामस्वरूप काला धन पर नियंत्रण किया जा सकेगा,जाली मुद्रा का चलन रोका जा सकेगा तथा आतंकवादियों को मिलने वाली नकद आर्थिक सहायता पर रोक लग सकेगी। परंतु इनमें से कोई भी सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ सके। देश में प्रचलित मुद्रा का 99 प्रतिशत हिस्सा देश के लोगों ने बैंकों में जमा कर दिया। शेष एक प्रतिशत सहकारी बैंकों या पड़ोसी देशों के बैंकों में जमा करा दिए गए। जाली मुद्रा आज भी पूरे देश में नई करेंसी की शक्ल में भी पकड़ी जा रही है। उधर आतंकवादी घटनाओं में भी कोई कमी आने के आसार नजऱ नहीं आ रहे। ऐसे में जिन बातों को सामने रखकर नोटबंदी की गई थी उनमें से कोई भी लक्ष्य हासिल नहीं हो सका। यही वजह थी कि सरकार यहां तक कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस विषय पर कई बार नए-नए शगूफे लेकर जनता के सामने आते दिखाई दिए। नोटबंदी की इस निरर्थक कवायद में सरकारी आंकड़ों के ्रअनुसार 120 लोग अपनी जान गंवा बैठे। जबकि अपुष्ट सूत्रों के अनुसार मृतकों की तादाद तीन सौ से लेकर चार सौ के मध्य है।
दूसरी ज़मीनी सच्चाई भारतीय किसानों तथा कृषि श्रमिकों की दयनीय आर्थिक स्थिति से संबंधित है। वित्तमंत्री की ‘तेज़ रफ्तार’ अर्थव्यवस्था के दावों के मध्य खौफनाक आंकड़े यह बता रहे हैं कि देश में प्रत्येक वर्ष लगभग 12 हज़ार अन्नदाता किसान केवल इसलिए आत्महत्या कर रहे हैं कि या तो वे अपनी कृषि उपज में होने वाला घाटा सहन नहीं कर पा रहे हैं या फिर वे कजऱ् के बोझ तले इतना दब चुके हैं कि उन्हें भविष्य में भी अपना कजऱ् उतारने की कोई उम्मीद नजऱ नहीं आती। बावजूद इसके कि ‘अच्छे दिन’ 2014 में ही आ चुके थे फिर भी 2015 में इसी कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए कुल 12 हज़ार 602 लोगों द्वारा अपनी जीवन लीला समाप्त करने का फैसला लिया गया। इनमें 8007 किसान तो कृषि उत्पादक थे जबकि 4, 595 कृषि से संबंधित श्रमिक तौर पर काम करने वाले लोग थे। गोया 2015 में भारत में जहां कुल आत्महत्याएं 1,33,623 दर्ज की गईं उनमें 9.4 प्रतिशत आत्महत्या करने वाला हमारा कृषि प्रधान देश का कृषक समाज ही था। इस समय क्रमवार जिन राज्यों में आत्महत्या करने वाले किसानों में बढ़ोतरी हो रही है वे राज्य हैं अंाध्र प्रदेश,कर्नाटक,मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ तथा महाराष्ट्र। हालांकि देश के संपन्न राज्य समझे जाने वाले पंजाब,हरियाणा व गुजरात से भी किसानों द्वारा आत्महत्या करने के समाचार भी मिलते रहते हैं।
देश के लोग उन भयावह दिनों को कभी भूल नहीं सकते जबकि गत् वर्ष तथा इस वर्ष भी तमिलाडु के किसानों द्वारा दिल्ली के जंतरमंतर पर अपनी दयनीय स्थिति को लेकर प्रदर्शन किए गए। इस प्रदर्शन में यह किसान अपने साथी उन किसानों के नर मुंड गले में लटकाए हुए थे जिन्होंने अपनी तंगहाली से दुखी होकर आत्महत्याएं की थीं। यह प्रदर्शकारी किसान, विरोधस्वरूप नग्र अवस्था में भी प्रदर्शन कर रहे थे और कई किसान तो मानवमूत्र सेवन कर सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे। इन किसानों द्वारा कभी तमिलनाडु से दिल्ली आकर अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन किया गया तो कभी मध्यप्रदेश के मंदसौर से किसान मुक्ति यात्रा निकाल कर पैदल दिल्ली तक का मार्ग तय किया गया। यहां तक कि मीडिया के समक्ष सार्वजनिक रूप से घास,चूहा व सांप खाकर इन अन्नदाताओं ने अपनी बेबसी का इज़हार किया। सवाल यह है कि यह ज़मीनी सच्चाईयां क्या वित्तमंत्री के बताए गए ‘तेज़ रफ्तार’ से बढ़ती अर्थव्यवस्था के आंकड़ों से मेल खाती हैं। नोटबंदी,जीएसटी से आम लोगों को हो रही परेशानियां,बढ़ती बेरोजग़ारी,चौपट होते उद्योग-धंधे तथा मध्यम वर्ग के व्यवसायिों व किसानों की बदहाली के बीच भगवान राम की सौ मीटर की प्रतिमा लगाए जाने की घोषणा करना तथा केदारनाथ के पुर्नोद्धार का नाटकीय उद्घोष जैसी बातें यह अपने-आप बता रही हैं कि प्रगति के आंकड़े और ज़मीनी सच्चाईयों के मध्य सरकार स्वयं को किस प्रकार सुरक्षित रखने की युक्ति तलाश रही है।