31 जुलाई बलिदान दिवस पर विशेष-21 साल तक प्रतिशोध की आग में जलते रहे थे अमर क्रांतिकारी सरदार ऊधम सिंह !
मैं देश के लिए जान दे रहा हूं’ कह कर इस भारतीय ‘शेर’ ने लिया था जालियांवाला कांड का बदला
“मरने के लिए बूढ़े होने का इंतजार क्यों करना? मैं देश के लिए अपनी जान दे रहा हूं…”, आज से 80 साल पहले भारत मां के वीर पुत्र ने फांसी पर चढ़ने से पहले अपने देशवासियों के नाम यह चिट्ठी लिखी थी। 13 अप्रैल, 1919 को पंजाब के जलियांवाला बाग में रॉलेट एक्ट का विरोध कर रहे हजारों निर्दोष भारतीयों को जब अंग्रेज गोलियों से भून रहे थे, तो एक सरदार ने अपनी मिट्टी से वादा किया था कि वो इस नरसंहार का बदला लेकर रहेगा।
अपने वादे को पूरा करने के लिए भारत मां का यह लाल 21 सालों तक बदले की आग में जलता रहा और आखिरकार 13 मार्च, 1940 को लंदन में माइकल ओ ड्वायर को मौत के घाट उतार कर अपनी कसम पूरी की। माइकल ओ ड्वायर जलियांवाला कांड के वक्त पंजाब प्रांत के गवर्नर थे।
यह वीर देशभक्त जिन्हें पूरा देश सरदार उधम सिंह के नाम से जानता है, उनका असली नाम था शेर सिंह। 13 मार्च को उधम सुबह से ही अपनी योजना को अंजाम देने के लिए पूरी तरह तैयार थे। माइकल ओ ड्वायर को एक सभा में हिस्सा लेने के लिए तीन बजे लंदन के कैक्सटन हॉल में जाना था। उधम वहां समय से पहुंच गए। वो अपने साथ एक किताब ले कर गए थे, जिसके पन्नों को काट कर उन्होंने बंदूक रखने की जगह बनाई थी। उन्होंने धैर्य के साथ सभी के भाषण खत्म होने का इंतजार किया और आखिर में मौका पाते ही किताब से बंदूक निकाल कर ड्वायर के सीने में धड़ाधड़ गोलियां दाग दीं। ड्वायर को दो गोलियां लगीं और मौके पर ही उनकी मौत हो गई।
इस दौरान तीन अन्य अधिकारी भी घायल हो गए, जिनमें भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट भी शामिल थे। उधम सिंह का 21 साल लंबा इंतजार पल भर में खत्म हो गया, लेकन अभी उन्हें अपने साहस की सजा मिलनी बाकी थी। उन्हें तुरंत पकड़ कर हिरासत में ले लिया गया।
उधम सिंह ने खुलेआम अपना गुनाह कबूल करते हुए लिखा कि,’मैंने उसे मारा क्योंकि मुझे उससे नफरत थी। वो इसी लायक था। मैं किसी समाज का नहीं। मैं किसी के साथ नहीं। मरने के लिए बूढ़े होने का इंतजार क्यों करना? मैं देश के लिए अपनी जान दे रहा हूं।’ केवल दो महीने चले मुकदमे के बाद 31 जुलाई, 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।
उन दिनों उधम सिंह का नाम शेर सिंह हुआ करता था। 26 दिसंबर, 1899 को पंजाब के संगरूर गांव में उनका जन्म हुआ था। छोटी सी उम्र में ही माता पिता के निधन के बाद वो अनाथालय में पले-बढ़े। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी जब जालियांवाला के दर्दनाक कांड ने उनके जीवन को आजादी की लड़ाई की तरफ मोड़ दिया।
वो ‘गदर’ पार्टी से जुड़े और बाद में बड़े नेता के तौर पर उभरे। इसी बीच उन्हें 5 साल की जेल की सजा हुई थी। सजा काटने के दौरान लाहौर जेल में उनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई, जिनसे वो बहुत प्रभावित हुए थे। जेल से निकलने के बाद उन्होंने अपना नाम बदल कर ‘उधम सिंह’ रखा और पासपोर्ट बनाकर विदेश चले गए।
उधम सिंह अपने मिशन को अंजाम देने के लिए इतने समर्पित थे कि वे कई साल तक भेष बदल कर विदेश में रहे। इस दौरान एक तरफ दूसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडरा रहा था और दूसरी तरफ साउथैंपटन में उधम सिंह आजाद के नाम से रह रहे थे। यहां वो सेना के लिए कैंप बनाने वाली कंपनी में काम करते थे।
उधम सिंह ने एलिफेंट बॉय और द फोर फेदर्स नाम की दो ब्रिटिश फिल्मों में भी काम किया, लेकिन किसी की मजाल नहीं थी कि उन्हें पहचान पाता। वहां अंग्रेजों की ज्यादती का विरोध करने के कारण वो पुलिस की नजरों में तो आ गए, लेकिन कभी किसी के हाथ नहीं आए। उनके पीछे ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी भी लगी हुई थी, लेकिन कोई उन्हें खोज नहीं पाया।
13 अप्रैल को मिशन पर निकलने से पहले उधम अपने मित्र और पिता समान बंदा सिंह से मिले थे। उधम ने भावुक हो कर अपने मित्र से कहा था कि भाई जी अपना सामान बांध लो और ये शहर छोड़ दो। मैं कुछ करने वाला हूं। मैं नहीं चाहता कि बाद में जो कुछ हो उसमें आप पकड़े जाओ।
बांदा सिंह मना करने पर उधम ने कहा “उसे मरना ही होगा और मुझे ही ये करना है”… इतना कह कर उधम सिंह ने अपनी आखिरी मुलाकात पूरी की और चल पड़े।
स्वतंत्रता संग्राम में उनका यह अमिट वलिदान सदेव अमर रहेगा । यह देश और समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा ।
सुरेश बाबू मिश्र सेवानिवृत प्रधानाचार्य बरेली ।
बरेली से निर्भय सक्सेना की रिपोर्ट !