आज भी उपेक्षा का शिकार है मुंशी प्रेमचंद का घर और गांव !
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिवस उनके गांव लमही में मनाया गया ! सरकारी महकमों ने फ़र्ज़ अदायगी की, तो प्राइवेट स्कूल, रंगकर्मी, साहित्यकारों और पत्रकारों ने भी एक दिन के लिए कथाकार को याद किया !
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिवस उनके गांव लमही में मनाया गया. सरकारी महकमों ने फ़र्ज़ अदायगी की, तो प्राइवेट स्कूल, रंगकर्मी, साहित्यकारों और पत्रकारों ने भी एक दिन के लिए कथाकार को याद किया. अब पूरे साल उन्हें सभी उनके हाल पर छोड़ देंगे. तमाम घोषणाओं के बावजूद मुंशी प्रेमचंद का घर और गांव आज भी उपेक्षा का शिकार हैं और जो कुछ बना भी है, वह बस यूं ही खड़ा है, बिना किसी काम के.
मुंशी जी की जयंती पर उनके पात्र होरी, माधव, घीसू की गहरी संवेदना से जुड़े कलाकार नाटक के जरिये उन्हें याद कर रहे थे. लमही में हर साल उनका जन्म दिवस मनाया जाता है. सरकारी महकमे की तरफ से फ़र्ज़ अदायगी के लिए टेंट भी लगाता है, स्मारक स्थल पर कार्यक्रम भी होते हैं और गांव में मेले जैसा माहौल भी रहता है, लेकिन कथाकार के लिए एक दिन के प्यार पर गांव वालों के भीतर एक दर्द भी है.
सुरेश चंद्र दुबे बताते हैं, दर्द इस बात का है कि साल में एक बार महोत्सव का रूप ले लेता है, लेकिन उसके बाद प्रेमचंद कौन हैं, कहां हैं, किसी को ख़बर तक नहीं होती. लोगों को लगता है कि प्रेमचंद के गांव चल रहे हो, वहां बहुत कुछ होगा, लेकिन यहां आने पर मायूस हो जाते हैं. लगता है, प्रेमचंद आम आदमी के लेखक थे, आम ही रह गए, खास नहीं हो पाए.
लमही गांव में, मुंशी प्रेमचंद के जिस घर के आंगन में कभी घीसू, हीरा, गोबर, धनिया पैदा होकर जवां हुए थे, जयंती के दिन उस घर की दरोदीवार पर रंग-रोगन किया गया है. दीवारों पर उनके पात्रों की पेंटिंग टंगी हैं, और लोग देखने भी आ रहे हैं, लेकिन साल भर यह मकान बदहाल रहता है.
ऐसा भी नहीं है कि सरकारों ने मुंशी जी के नाम पर कुछ नहीं किया. कई योजनाएं बनीं, उन्हीं में पिछली सरकारों के प्रयास से तकरीबन दो करोड़ की लागत से मुंशी जी के घर के ठीक सामने एक शोध संस्थान बना. बिल्डिंग और दूसरे संसाधन भी मुहैया करा दिए गए, और इसे BHU के हिन्दी विभाग की देखरेख में सौंप दिया गया, लेकिन बीते चार साल से यह बदहाली की धूल फांक रहा है.
लमही में हर तरफ अव्यवस्था दिखती है. लमही के द्वार पर बैठे मुंशी प्रेमचंद्र के पात्र भी सालभर की उपेक्षा से कम निराश नहीं. परिवार से उपेक्षित बूढ़ी काकी भी अपनी आंखों में सपने लिए एक पल का प्यार ढूंढ रही हैं और वह यह प्यार उन लोगों से ढूंढ रही हैं, जो मुंशी जी के साहित्य परम्परा के असल वाहक हैं, लेकिन आते साल में सिर्फ एक दिन हैं. हिन्दी विभाग के प्रोफेसर सदानंद शाही कहते हैं कि अपने लेखक से प्यार करने की और अपने लेखक को संजोये रखने की, उसकी स्मृतियों को जीवंत बनाए रखने की जो सामाजिक जिम्मेदारी है, उसे हमें पूरा करना चाहिए, जो हम नहीं कर पा रहे हैं.
विडम्बना यह है कि मुंशी प्रेमचंद की जयंती से चार दिन पहले उनके घर की बिजली इसलिए काट दी गई, क्योंकि 14 साल से बिल का भुगतान नहीं हुआ था. जब यह खबर मीडिया में आई, तो आनन-फानन बिजली वैसे ही जुड़वा दी गई. क्योंकि कोई विभाग इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा था. गौरतलब है कि पहले यह मकान और प्रेमचन्द जी का स्मारक नागरी प्रचारिणी सभा के पास थे, लेकिन फिर उन्होंने इसे नगर निगम को दे दिया, नगर निगम ने भी बाद में वाराणसी विकास प्राधिकरण को देकर पल्ला झाड़ लिया और अब जब यह विवाद सामने आया है, तो जिलाधिकारी ने इसे संस्कृति विभाग को सौंप दिया और अब इस गांव को गोद लेकर खुद इसे देश के बड़े फलक पर लाने की योजना बना रहे हैं.